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पितृपक्ष और पूजापाठ

वेद विज्ञान
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++++पितृपक्ष और पूजापाठ++++
कुछ अल्पज्ञ आचार्य पितृपक्ष में देवताओं की पूजा (सामान्य) भी प्रतिबंधित कर देते है. जो कदापि उचित नहीं है.
हारीत एवं याज्ञवल्क्य ने जिस तरह इसका विश्लेषण एवं प्रस्तुतीकरण किया है उसे देख कर तो नास्तिक एवं गैर सनातनी की भी आँखें खुल जायेगी। फिर इसके अनुयायियों का क्या कहना?
“बाणेष्टछृष्टान्य पृकड्रः पहलुक्मं पयोषधन्यानिपावकः।
दिव्यान्यूदद्याः पयसाज्येग्रात यत्तर्पणं पितृलोके वसति वा.. “
सीधी बात है. जब देहावसान होता है. तब पाँचो तत्व अंतरिक्ष में अपने सतह या विजाति को प्राप्त होते है. जल पानी में, वायु पवन में, अग्नि (जठराग्नि आदि) तेज में विलीन हो जाते है. तो केवल अति सूक्ष्म प्राण स्वरुप वायु जिसे आज का समुन्नत विज्ञान किन्ही जटिल तत्वों का यौगिक मानता है तथा इसे अनुमान के सहारे “मेटाडिक्लोथर्जिक ट्राइबोन्यूक्लिक एसिड” मानता है जो तारा मण्डल में अदृष्य गैस की लेई के रूप में भ्रमण करता रहता है. और अंतरिक्ष के विविध तत्वों को किन्ही निश्चित अनुपात में मिश्रित कर एक नया रूप देता रहता है. हार्डिंक्टन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डार्ट एम ब्लीक लिखते है कि-
“प्राचीन भारतीय ग्रंथो में वर्णित चौरासी लाख योनियों का समूर्त्तिकरण इसी एमटीएनए की मध्यस्थता से विविध दृष्य अदृष्य एवं चिन्त्य अचिन्त्य गुणों वाले सूक्ष्म एवं स्थूल तत्वों के परस्पर आनुपातिक मिश्रण एवं विलयन से पूर्ण होता है. किन्तु यह केवल मध्यस्थ या उत्प्रेरक की भूमिका अदा करता है, स्वयं का विलयन एवं अपना रूप-गुण त्याग नहीं करता। जैसे अमीबा। एक परिपक्व अमीबा अनेक अन्य अमीबा को बनाता है, अपने से अलग करता है किन्तु स्वयं उसमें नहीं विलीन होता।”
(“Molecular Transformation of Derived Plasma” Page 228)
तात्पर्य यह कि जब जीव (=जीवद्रव्य) अपने विविध आश्रित तत्वों को विखण्डित कर देता है तो उस जीव का क्या अस्तित्व? और जब अस्तित्व नहीं है तो वह इन निर्धारित माध्यमो (पाँच माध्यमो) से कुछ भी कैसे ग्रहण करेगा? या दूसरे शब्दों में जब जीव (=या आत्मा) इन पाँचो माध्यमो (पाँच तत्व एवं तीनो गुण) से पृथक होकर मुक्त हो गई तो उसकी पूजा अग्नि, जल आदि के माध्यम से क्या करना?
अर्थात अग्नि का माध्यम यानी हवन यज्ञादि, जल का माध्यम यानी कलश रोपण आदि, धरती अर्थात गन्धादि लेपन अनुलेपन आदि.
अर्थात इस मुक्त जीव की पूजा इन माध्यमो से नहीं की जा सकती। इसीलिये पितृपक्ष या श्राद्धकर्म में कलश स्थापन तथा हवन यज्ञादि निषिद्ध है.
किन्तु
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं दीपं वा अनुमर्दनम्। श्राद्धे यद्पूर्वमापाख्ये तत्सर्वं खलु क्रीयताम्।”
अर्थात पत्रादिक अर्पण तथा प्राणायाम योग आदि जो निरंतर होते आये है, उनका त्याग भी नहीं होना चाहिये।
इस प्रकार श्राद्धपक्ष में पूजा का निषेध नहीं है. केवल पाँचो माध्यमो से की जाने वाली पूजा निषिद्ध है. जिनका कारण ऊपर बताया है.
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com
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