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क्या पितरो को दिया गया तर्पण, पिण्ड दानादि उन्हें प्राप्त होता है?

वेद विज्ञान
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क्या पितरो को दिया गया तर्पण, पिण्ड दानादि उन्हें प्राप्त होता है?
मैंने अपने पिछले पोस्ट में बताया था कि शरीर की इकाई स्वरुप कोशिका के जब पाँचो विभाग —माइटोकॉन्ड्रिया, सेन्ट्रियोल, लाइजोसोम, साइटोप्लास्म और रिबोसोम जब किसी बाह्य या अन्तः हस्तक्षेप/अवरोध/प्रतिरोध के परिणाम स्वरुप एक दूसरे के प्रति अपने निर्धारित उत्तरदायित्व में अनियमित या उदासीन हो जाते है तो अन्य चार भी अपने कार्य से विरत हो जाते है. उदाहरण स्वरुप माइटोकोन्ड्रिया कोशिका का ऊर्जा उत्पादन एवं आपूर्ति केंद्र है. यदि इसने ऊर्जा उत्पादन बाधित कर दिया तो उस समय तक जीतनी ऊर्जा कोशिका के साइटोप्लास्म में एकत्र होगी वह तो सेन्ट्रियोल आदि अवयवो द्वारा ले ली जायेगी। और इधर साइटोप्लास्म को माइटोकॉन्ड्रिया की तरफ से ऊर्जा मिली नहीं। ऐसी अवस्था में साइटोप्लास्म का तापक्रम इतना नीचे गिर जाता है कि वह जम जाता है और कठोर हो जाता है. जिससे एंडोप्लास्मिक रेटिकुलम, गोल्गी अपरेटस तथा न्यूक्लियर मेम्ब्रेन भी ठन्डे होकर और अकड़ कर चिटक जाते है. और दोनों न्यूक्लियर मैटर्स -डीएनए और आरएनए बहकर बाहर निकलकर साइटोप्लास्म में स्पर्श करते ही रेप्टिसिलिक सीरम का रूप धारण कर लेते है और इस सूक्ष्म क्रिया से उत्पन्न ऊर्जा से साइटोप्लास्म पुनः पिघलता है. किन्तु तब तक कोशिका के पाँचो अवयव वैकम द्वारा कोशिका से बाहर कर दिये जाते है. जिससे अन्य कोशिकाएँ संक्रमित होती चली जाती है. आप को ज्ञात होना चाहिये कि एक मनुष्य का शरीर 100 ट्रिलियन (1000 शंख) कोशिकाओं से बना होता है. यह आधुनिक विज्ञान का आंकड़ा है जिस पर आज भी अनुसंधान चल रहा है. और भविष्य में इस आंकड़े में कमोबेसी भी हो सकने की संभावना है. किन्तु प्राचीन भारतीय शास्त्रो के अनुसार 1008 महाशंख अतिसूक्ष्म तंतुओं की व्यवस्थित प्रबल गाँठ से शरीर बंधा होता है.
अस्तु, हम मूल विषय पर आते है. इस प्रकार जब समस्त कोशिकाओं से ये पाँचो तत्व स्वतंत्र होकर बाहर निकल जाते है तो शरीर निष्क्रिय हो जाता है. और इस अवस्था को मृत्यु कहते है.
पुनः जब निर्धारित ताप एवं दाब में ये पांचो तत्व एक निश्चित अनुपात में एकत्र होते है तो कोशिकीय निर्माण होता है. और एक नये शरीर की रचना होनी शुरू होती है.
जीतनी तेजी से ये कोशिकाएँ मरती है उतनी ही तेजी से इनका निर्माण भी होता है. क्रोमोसोम्स (जेनिटल स्पर्म्स) के संचयन (सिन्थेसिस्म) का आधार प्रकृति द्वारा यही निर्धारित किया गया है. इनके अर्थात इन पाँचो तत्वों के मिश्रण के अनुपात में विचलन होने पर भ्रूण की भी आकृति विकृत हो जाती है जिसके परिणाम स्वरुप भ्रूण के चार हाथ या दो सिर या मुँह का आकार बन्दर या बकरे जैसा आदि हो जाता है.
आप ने देखा होगा धुवाँ सदा ऊपर ही उठता है. यह धुवाँ कभी भी एकाएक ऊपर नहीं चला जाता। इसे सुबह, शाम या जाड़े के दिनों में देखा जा सकता है. चारो तरफ धूम छाया दिखाई देता है. ये पांचो तत्व शरीर के बंधन से स्वतंत्र होकर हवा में विलीन होकर उस स्थान के चतुर्दिक भ्रमण करते रहते है. कारण यह है कि इनके उस स्थान पर ज्यादा दिन तक रहने के कारण एक चुम्बकीय क्षेत्र बन जाता है जिसके आवेश शून्य होने में ज्यादा समय लग जाता है. इसे प्रयत्न पूर्वक आवेश रहित किया जा सकता है और ये पाँचो तत्व कम समय में ही उस चुम्बकीय क्षेत्र से मुक्त होकर अंतरिक्ष में विलीन हो सकते है.
इसी कृत्रिम प्रयत्न को पिण्डदान, तिलांजली, तर्पण, दशगात्र, एकादशाह और द्वादशाह आदि के द्वारा पूरा किया जाता है. और इन्ही माइटोकॉन्ड्रिया और रिबोसोम्स आदि पाँचो तत्वों को शास्त्रीय जीव रचना प्रखंड में “क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर” आदि के नाम से विवरण प्राप्त होता है. यद्यपि अभी इनके गुण, प्रकृत्ति, कार्यप्रणाली एवं उद्भव आदि से आधुनिक विज्ञान पूर्णतया अनभिज्ञ है. जब की शास्त्र इनके इन सारे अवयवो से परिचित है. देखें-
“पंचीकृत्य तु तान्येव पञ्चभूतसमुद्भवः।
पंचीकरणभेदो अयं श्रृणु संवदतः किल.
प्रथमं रस तन्मात्रामुपादाय मनस्यपि।
कल्पयेच्च तथा तद्वै यथा भवति चोदकम्।।
शिष्टानां चैव भूतानामंशान्कृत्वा पृथक्पृथक।
उदके मिश्रयेच्चांशान्कृते रसमये ततः..
तदा भूत तथा तद्वै यथा भवति चोदकम्।।”
(श्रीमद्देवीमहाभागवत पुराण स्कंध 3, अध्याय 7 श्लोक 42-44)
अब यदि हम तर्पण, तिलांजलि एवं होम आदि की रासायनिक विधि, उसमें प्रयुक्त रसायन, उनके सम्मिलित रासायनिक यौगिकों, विलयनों, मिश्रणों आदि से उत्सर्जित 49 वायु, 27 मुख्य किरणों के विकिरण से प्रभावित जजमान, आचार्य एवं समुपस्थित समुदाय के विविध मानसिक एवं शारीरिक बाह्य एवं अन्तःग्रंथियों पर दृष्य-अदृष्य प्रभाव की वैज्ञानिक प्रमाप इकाई (साइंटिफिक मिजरिंग टूल) से मापें तो पता चलेगा कि ढेर सारी दृष्य-अदृष्य विकृतियों और बाधाओं का परिशमन अङ्कन (ग्राफ) बहुत समाप्त हो गया. इस पर अनेक संस्थायें और वैज्ञानिक अपना शोध प्रयत्न जारी रखे है. यह अलग बात है कि इसे हमारे भारत में ढोंग एवं पाखण्ड आदि के नाम से प्रचारित कर थोथे विकाशवादी समाज सुधार के ढोल पर श्रद्धालु धार्मिकों के विश्वास के मुदगर से बजाते हुए ज़हरीली लोकप्रियता हासिल कर रहे है. और प्रत्यक्ष आतंकवादी के रूप में बेशर्मी के साथ सीना ताने ताल ठोकते हुए अनपढ़, ज़ाहिल, धूर्त्त एवं उदरपोषणरत पुरोहित रुपी वराहावतार निकृष्ट पंडितो एवं आचार्यो के पेट पर लात मारते हुए एक प्रकार से इस श्राद्धकर्म की परम्परा के प्रति उपकार ही कर रहे है.
(इससे सम्बंधित अन्य विवरण मेरे पिछले इससे सम्बंधित पोस्ट जो फेसबुक पर है, उसे देखें)
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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