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सिद्धि, साधना, योग एवं वेद की आज्ञा

वेद विज्ञान
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सिद्धि, साधना, योग एवं वेद की आज्ञा
++++साधना करते समय क्या आप वेद की आज्ञा का पालन करते है?+++++
“ये च पूर्वे ऋषयो ये च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।”
(ऋग्वेद 7वाँ मण्डल 22वाँ सूक्त 9वम मन्त्र)
ध्यान से मन्त्र को देखें-
लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रथम पंचेन्द्रिय (पूर्वे)–हाथ, पैर, गुदा आदि पांचो कर्मेन्द्रिय ====इन्हें तथा आँख, नाक आदि पाँचो ज्ञानेन्द्रियों को (नूत्ना इन्द्र) को उचित एवं पर्याप्त मात्रा-मापदण्ड में जब तक शक्ति रहे विस्तारित एवं संकुचित करते रहें। ऐसी अवस्था में इनका संपर्क एक दूसरे से भंग हो जाता है. तथा इनमें अपने अपने को ही व्यवस्थित, संतुलित एवं सामान्य करने में व्यस्त हो जाना पड़ता है. और इस प्रकार इनके अंदर अपनी स्वतंत्र ऊर्जा का निर्माण होने लगता है–(ब्रह्माणि जनयन्त). और व्यसनी, उलझा हुआ इन्द्र (इन्द्रियों का स्वामी – मन) निस्तेज, असहाय एवं कुण्ठित हो जाता है.
“उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्येन्द्रे समर्ये महया वशिष्ठ।
आ यो विश्वानि शवसा ततानोपश्रोता म ईवतो वचांसि।”
(ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 23, मन्त्र प्रथम)
ऊपर के मन्त्र में स्पष्ट है है कि इन्द्रियों के ऊपर इन्द्र (मन) नें जाल तान रखा है. जिसे बल पूर्वक तोडना पड़ता है. इसके लिये मन से इन्द्रियों का मोहभंग करना ही पडेगा। और जब इन्द्रियाँ विस्तारण एवं संकुचन से त्रस्त हो जायेगी तो उन्हें स्वयं की रक्षा सुरक्षा में तल्लीन हो जाना पडेगा। मन से उनका मोहभंग हो ही जाएगा। उसके बाद प्रत्येक इन्द्रिय को अपनी अलग सत्ता का तथा अन्य इन्द्रियों को अपनी पृथा शक्ति का ज्ञान होगा।
“नि दुर्ग इन्द्र श्नथि ह्यमित्रानभि य नो मर्तासो अमन्ति।
आरे तं शंसं कृणुहि निनित्सोरा नो भर संभरणं वसूनाम्।।”
(ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 25, मन्त्र 2)
ऊपर के मन्त्र में भी यह स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट है कि प्रत्येक इन्द्रिय को यदि भूतविधारण आदि क्रिया से उद्वेलित एवं संत्रस्त न किया गया तो असमर्थता, अज्ञान एवं भ्रम आदि अनेक दोषो ने जो कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों को अपना दुर्ग या सुरक्षित किला या अभेद्य कवच (नो दुर्ग इन्द्र श्नथि) बनाकर रखा है, उन्हें स्वच्छता, न्याय एवं नियमित रूप से अपना कार्य संपादित नहीं करने देगें।
उपर्युक्त मन्त्र का सीधा अर्थ यह है कि ” शत्रु लोग दुर्ग में छिप गये है. तू उन्हें ढीला कर दे. ऐसे वीर कर्मो से तू निन्दको की प्रशंसा का पात्र बन और हमारी उन्नति का सम्भार इकट्ठा कर.
इस प्रकार स्वतंत्र होने के बाद ये इन्द्रियाँ अनेक शक्तियों का सृजन एवं निस्सारण करती है. देखें-
“चकार ता कृण्वन्नूनमन्या यानि ब्रुवन्ति वेधसः सुतेषु।
जानीरिव पतिरेकः समानो नि मासृजे पुर इन्द्रः सुसवीः।।”
(ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 26, मन्त्र 3)
जब इन्द्रियों का मन से विच्छेद हो जाता है तो वह मन निरीह, लाचार एवं निराश्रित होकर इन इन्द्रियों को निहारता है. याचना भरी दृष्टि से इनकी तरफ देखता है. इन्द्रियाँ कहती है कि –
“हन्ता वृत्रमिन्द्रः शुशुवानः प्राविन्नु वीरो जरितारमूती।
कर्ती सुदासे अहु वा उ लोकं दाता वसु मुहु रा दाशुषे भूत.. “
(ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 20, मन्त्र 2)
अर्थात जो वृत्र (देव विरोधी-दिव्य कर्म विरोधी) का हन्ता हो, अति वेगवान हो अर्थात आलस्य कर निठल्ला न बैठे, स्तोताओं की लाज अपने आचरण से रखे अर्थात अपने आश्रितों पर कोई विघ्न या व्याधि न आने दे, उत्तम दान देने वालो के लिये पारितोषिक देने वाला हो अर्थात इन्द्रियों के सक्रीय रहने पर उन्हें दूरगामी उत्तम एवं आदर्श परिणाम का मार्ग बतावे, और यह कार्य बार बार करे तो हे इन्द्र (मन)! हम तुमसे संयुक्त होने को तैयार है.
और इस प्रकार दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत इन्द्रियों से युक्त मन द्रुतगामी होकर लक्ष्य तक सहज ही पहुँच सकता है.
विशेष- इन्द्रियों के विस्तारण एवं संकुचन की प्रक्रिया आमने सामने सम्मुख रह कर बताई जा सकती है. कुछ दिनों तक मैंने इसका प्रशिक्षण दिया था. सेना में इसका विशेष महत्त्व है. मन्त्र तंत्र एवं ईष्ट साधना का यह वेद वर्णित सर्वोत्तम एवं एकमात्र विश्वसनीय पद्धति है. जिसका पक्षधर आज का विज्ञान सम्पूर्ण रूप से है.
इन इन्द्रिय निग्रह, संतुलन, नियंत्रण आदि से अनेक असाध्य साधनाओं का सफल सिद्धिकरण होता है.
पण्डित आर के राय
Mail- khojiduniya@gmail.com

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