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दमा, क्षय एवं अर्बुद रोग, ग्रहो का कारकत्व एवं निवारण
यदि बुध-गुरु केंद्र के स्वामी न हो और छठे भाव में बैठे हो तो फेफड़े का रोग अवश्य होगा। यदि इस युति पर राहु की दृष्टि हो तो दमा होगा, शनि की दृष्टि हो तो क्षय (TB) होगा, यदि मंगल की दृष्टि हो तो फुफ्फुसार्बुद (Lung Cancer) होगा।
“ज्ञेड्यो वीक्षतेयर्म कर्कुदेदन्यः न मन्दो वक्रो वा विदग्धः।
शत्रुस्थे नवश्रघ्नमर्बुदः क्षयस्तु जातो खलु वा नराणाम्।।”
कुण्डली यदि शुद्ध बनी हो तथा उसमें ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो बिना रोग के लक्षण प्रगट हुए पहले ही निवारणात्मक मार्ग अपना लेना चाहिये। यथा राहु की दृष्टि होने पर कँजू गोखना (पन्ना-गोमेद की मिश्रित प्रजाति का रत्न) धारण कर, बबूल का गोंद, गुड, अपामार्गा का फूल तथा सिंहासनी का फूल सब बराबर मात्रा में लेकर पारद भस्म तथा गोमेद क्षार दोनों एक एक तोला में मिलाकर खूब मर्दन करे जब तक उसमें से धुवाँ निकालना न शुरू हो जाय. उसके बाद उस मिश्रण को एक एक रत्ती काली मिर्च, लवंग तथा जावित्री में कूटें। जब यह पूरा मिश्रण भली भाँती परस्पर मिल जाय तो आधी आधी रत्ती की गोली बनाकर रख ले तथा दो दो गोली दोनों समय गन्ने के पकाये सिरके के साथ 21 दिन तक लें उसके बाद एक एक गोली लें.
इसे आज का आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पूरी तरह मानता है. इसमें पैराफिलोमीन सल्फोसेट्रिसाइड तथा मेंथोसिक्लेरॉइड लिओथियान उत्कृष्ट और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है. आज एलोपैथी की इथैम्बुटाल, कम्बुटाल आदि टिकिया इसी के सत से बनाई जा रही है. किन्तु इसके निर्माण में रिनालथोफेरॉल, नाइट्रोकैल्शिफेरोल और थियाडॉक्सिन भी बाहर हो जाते है जो फेफड़े को कवचीकृत करते है. किन्तु स्वयं वनस्पतियो के सहयोग से निर्मित मिश्रण में यह सदा मौजूद रहते है. जिससे इसकी उत्कृष्टता सौगुना बनी रहती है.
पण्डित आर के राय
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