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कुछ विशेष मुहूर्त==मूँगा-प्रवाल भेद, सधवा निषेध

वेद विज्ञान
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कुछ विशेष मुहूर्त==मूँगा-प्रवाल भेद, सधवा निषेध
रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, धनिष्ठा, पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र में ====
प्रतिपदा, नवमी एवं चतुर्दशी तिथि को छोड़कर शेष तिथियों में ====
शनिवार, सोमवार एवं मंगलवार को छोड़कर शेष दिनों में ==
प्रवाल, हाथी दाँत या इससे बने आभूषण, स्वर्ण आभूषण और वस्त्र धारण करना चाहिये।
=====इस पोस्ट को मेरा लिखने का तात्पर्य यह था कि प्रायः पण्डित लोग मंगलवार को प्रवाल पहनने का आदेश देते है. किन्तु लोग यहाँ भयंकर भूल करते है.
प्रवाल का सीधा अर्थ मूँगा कर देते है. यद्यपि मूंगा भी प्रवाल की ही प्रजाति का होता है. किन्तु प्रवाल मूँगा कदापि नहीं है. प्रवाल की विलेयता बहुत कम होती है जब कि मूँगा की विलेयता बहुत अधिक होती है.
प्रवाल की पूर्ण क्रियावधि 3 वर्ष की होती है. जबकि मूँगा की कार्यावधि 7 वर्ष होती है.
यद्यपि रूप, रंग, आकृति आदि में कोई भेद नहीं दिखाई देता। किन्तु यदि रासायनिक परिक्षण किया जाय तो भेद स्पष्ट हो जाता है.
आचार्य चण्ड ने सारङ्ग निस्तारणम् में बहुत ही सुन्दर कहा है कि–
“———–उत्सृज्यामूर्वीमनुबद्धवाप्रहर्षणं दधातु नः.
कल्पान्तरं उपमृत्यका त्यजेत् प्रवालं किं नु विचिन्तयत्।।”
अर्थात बृहणीक ने अपनी माता के आदेश का पालन करते हुए दारुणमणि को पेट फाड़ कर तो निकाल दिया। जिसे आज मूँगा कहा जाता है. किन्तु उजह्नुक ने आदेश का पालन न करते हुए उसके बदले में एक वैसी ही दूसरी मणि का स्वयं निर्माण किया जो अत्यधिक चमकीला था. जिससे पृथ्वी ने उसे प्रवालिका (प्रवाल) नाम दिया।
खैर, इस कथा का तात्पर्य नहीं किन्तु इनकी भिन्नता सिद्ध है.
आभूषण के सम्बन्ध में एक और तथ्य ध्यातव्य है-
जो स्त्री सधवा हो, उसे उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पुनर्वसु, पुष्य एवं शतभिषा में नवीन वस्त्राभूषण न धारण करे. शतभिषा नक्षत्र में तो सधवा स्त्री का स्नान भी वर्जित है–
“स्नानं कुर्वन्ति या नार्यश्चन्द्रे शतभिषान्विते।
सप्तजन्म भवेद् वन्ध्या विधवा दुर्भगा भृषम।।”
अर्थात चन्द्रमा के शतभिषा नक्षत्र में रहते जो स्त्री स्नान करती है वह सात जन्मो तक बाँझ अथवा विधवा एवं कुरूपा होती है.
और आज के पंडितजी लोग सीधे सीधे इसका अनुपालन करते हुए बिना आगे पीछे सोचे सधवा स्त्रियों को नहाने तथा नवीन वस्त्राभूषण आदि धारण करने से मना कर देते है.
किन्तु आचार्य वारुणी का यह कथन जो तार्किक, प्रामाणिक एवं विचारणीय-अनुकरणीय है, उसे नहीं मानते-
“न वा सूनुः दत्तं विधापि शुचितां खलु अनुपालयेत्।
गतोप्यिन्दुः तर्हि शतभिषां ध्रुवं पुनर्वसुं पुष्यं वा..
अर्थात जिस तरह उपरोक्त नक्षत्रो में सधवा का नवीन वस्त्राभूषण धारण एवं स्नान वर्जित है उसी प्रकार सपुत्री (पुत्रवती) स्त्रियों के लिये यह आवश्यक है कि शुद्धता एवं पवित्रता हेतु उपरोक्त नक्षत्रो में अवश्य स्नानादि क्रिया करे.
अस्तु, उपरोक्त भेद मूँगा और प्रवाल से सम्बंधित एवं प्रतिबंधित है.
शेष समस्त रत्न गुरूवार को यदि प्रतिपदा, नवमी या चतुर्दशी तिथि न पड़े तथा पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, अनुराधा एवं अश्विनी नक्षत्र पड़े तथा शुक्ल पक्ष हो तो धारण करने से सहस्र गुना फल मिलता है.
पण्डित आर के राय
Email- khojiduniya@gmail.com

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