====मैं आप का आभारी रहूँगा। कोशिश से सबकुछ हासिल किया जा सकता है, इसे मैं केवल पुस्तको में पढ़ा करता था या बड़े बुज़ुर्गो से सुना करता था. किन्तु इस प्रायोगिक सफलता से इस कथन पर मुझे दृढ विश्वास भी हुआ है तथा इसे कहने वालो के प्रति श्रद्धा भी बढ़ गई है.
आज इस औषधि की प्रायोगिक सफलता को देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है कि मैं आप के शेष पैसे भी लौटा देने में शीघ्र ही सफल हो जाऊँगा।
गठिया, आमवात आदि के विविध प्रकार एवं कारण शास्त्रो में बताये गये है जिनका यहाँ विवरण देना प्रसंग विचलन हो जायेगा।
मैं जो आज सामान्य रूप में इसके कारण और प्रकार लोगो में दिखाई दे रहे है उनके बारे में ही बात करूँगा।
प्रायः उपरोक्त व्याधियाँ तीन तरह की होती है. –तन्तुगत, अस्थिगत एवं रक्तगत।
=======तन्तु (Tentacles or Tissues or Mussels) में अर्द्धचर्म श्रोणि (Epidermic Chrondila) यदि विक्रांशु अवयव (फेरोसिलिक एसिड) की अधिकता वाला श्वेत रक्त कनिका (WBC) ग्रहण करता है तो उसका आणविक ग्रन्थधर्म (मॉलिक्यूलर प्रोलोग्लैंडुला) मोनोनाइट्राइट बनाना शुरू कर देता है. हिमोफ्लेरोक्सिन का विखंडन भयंकर दर्द का कारण बन जाता है. और कुछ दिनों बाद तंतु अत्यंत कठोर हो जाते है. इसे तन्तुगत व्याधि कहते है.
=======अस्थिगत (ऑर्थोपेडिसाइटिस) में रन्ध्रगत विलोमक (जोरोफेरिक डक्ट) का प्रवाह असंतुलित मज्जा से घिर जाता है. वायु प्रवहण न होने के कारण रिक्तिकाओं में संकुचन प्रारम्भ हो जाता है जिससे हड्डियों में विकृति उत्पन्न हो जाती है. प्राकृतिक संचरण मार्ग से विचलित या विपरीत आचरण के कारण असह्य दर्द उत्पन्न हो जाता है.
रक्तगत व्याधि पर्व, विपर्यय, अनुलोम एवं परिपाश इनमें जब परस्पर स्वाभाविक अनुपात में असंतुलन होता है तब उत्पन्न होता है. यह व्याधि प्राणघातक होती है. इसमें श्वासावरोध, नाड़ी अनुवाह, मस्तिष्क वेध आदि भयंकर उपद्रव होते है. यह प्रायः अत्यधिक माँसाहार एवं अत्यधिक क्लोरोकैल्शिफेरोल युक्त प्रोटीन वाले भोजन के सेवन करने वालो को होता है.
“भैसज्य कुञ्जलिका” का यह कथन आज पंद्रह वर्ष पीछे से खटक रहा था.
“नानुरञ्जन विभर्तु वा खञ्जः लसिकुत षडार्द्धश्च क्रमेण सन्ध्ययु।
इसमें सन्ध्ययु का विश्लेषण तथा रविभाति का अर्थ मैं स्पष्ट नहीं कर पा रहा था. सन्ध्ययु का तीन अर्थ हो रहा था-जोड़ का चर्म, संध्या समय की निशामुख वायु तथा सर्पगन्धा की ऊर्ध्वमुखी डंडी। इसी प्रकार रविभाति में भी मैं उलझा रहा. किन्तु असीम दया दिखलाने वाली महामाया देवपूज्या देवीभगवती माता दुर्गा की कृपा से सबकुछ स्पष्ट हुआ.
मैंने इसके पीछे बहुत खोजबीन की. किन्तु आवश्यक धन न होने के कारण मैं अपना काम आगे नहीं बढ़ा सका. क्योकि स्वर्णमाक्षिक भस्म, कर्वी का सत तथा अनुरंजना ये सब बहुत महँगे पदार्थ है. यदि मैं इन पर प्रयोग करता और असफल हो जाता तो लगभग तीस पैंतीस लाख रुपये की भरपाई मेरे सामर्थ्य के बाहर थी.
किन्तु कुछ स्वयं एवं महत्वपूर्ण योगदान श्री रामप्रवेश जी का रहा जिन्होंने लगभग तीसलाख रुपये दांव पर लगा दिये।
माता चण्डिका की कृपा से प्रयोग सफल रहा. मार्च 2014 में इस औषधि का निर्माण हुआ. इसका पहला प्रयोग झारखंड के एक अति गरीब व्यक्ति पर किया गया. शायद मार्च में ही उसने औषधि सेवन शुरू किया। दाँव खेल कर ही उसे हिरण्यमेध रत्न धारण करवाया गया. अप्रैल में लगभग उन्नीस व्यक्तियों को यह औषधि दी गई.
आज उपरोक्त बीसो व्यक्तियों का परिणाम आया. और वह भी शतप्रतिशत सफल. आज ये बीसो लंगड़े अपाहिज खुश एवं स्वस्थ हैं.
मैंने श्री रामप्रवेश जी के साढ़े सत्ताईस लाख वापस कर दिये। कुछ थोड़ा और रह गया है. जिसे जल्द ही मैं चुकता कर दूँगा।
अंत में मैं अपने निम्न सहयोगियों का आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन्होंने मेरा साथ दिया।
डाक्टर केशव प्रसाद, डाक्टर हरिबंश सिंह, डाक्टर रवि कान्त, प्रोफ़ेसर जियाउद्दीन सिद्दीकी, प्रोफ़ेसर सुश्री विमला नौटियाल, पण्डित दुर्गा प्रसाद झा, पंडित गौरीशंकर वार्ष्णेय, पण्डित अभय शंकर त्रिपाठी एवं प्रोफ़ेसर लाल बचन पाण्डेय।
इसके अलावा भी कुछ श्रद्धेय सज्जन परोक्ष रूप से सहयोग दिये जो गैर हिन्दू थे. तथा अपना नाम सार्वजनिक नहीं करना चाहते है.
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