ऋणा चिद् यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बाबाधे।।”
(ऋग्वेद मण्डल 4, सूक्त 23, मन्त्र 7)
योग, प्राणायाम आदि करने वाले ध्यान दें-
“यह इन्द्र =इन्द्रियाणां जनितं यद् अर्थात कोई भी दुःख, कष्ट, व्याधि या विकार संसार=शरीर को अपने शत्रुओं से रहित करना चाहता है. इसके लिये अपनी सेना=कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, ग्रंथियाँ तथा पञ्चमूल (रक्त, वसा, मज्जा, मांस एवं अस्थि) को उनके अनुकूल शस्त्रादि =भाव, संवेदना, यत्न, आचार, विचार, संचार, प्रचार एवं प्रसार से सुसज्जित =प्रेरित कर इनके शत्रुओं= सदुपदेश, सदाचार, हितभाव, नैरुज्य, आयुवर्द्धन एवं कल्याण, पर विजय प्राप्त करने हेतु इन्हें विस्तृत – आमूलचूल सोचने से विरक्त कर अर्थात क्षणिक सुख की तितिक्षा रुपी मदिरा पिलाकर इन्हें निष्क्रिय करता है. परिणाम स्वरुप ये सैनिक = कर्मेन्द्रिय आदि अपने मूल कर्तव्य से विमुख होकर कालान्तर में पूर्णतया उससे पृथक —सदा के लिये अनभिज्ञ हो जाते है.
और इस क्षणिक सुख में डूबते उतराते सैनिक ==कर्मेन्द्रिय आदि, कहते है कि====यह देखो राजा की विनम्रता जो हमारी कृतज्ञता के भार से दबा हुआ कहता है कि प्रजा (हम इन्द्रियाँ) इसे अपना मुखिया चुने है. अतः इनके हित तथा सुख आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करना मेरा प्रथम कर्तव्य है.”
–और इस प्रकार यह इंद्र इस प्रकार की लोलुपता से अंधा बना इन्हें अपने आप से दूर कर देता है.
अर्थात जिह्वा को यह सोचने का अवसर ही नहीं प्रदान करता कि उसकी जड़ अध्वर ग्रन्थि (Limiyasila Pharynga) में घुसी है और इस दुष्प्रभाव से ध्रस्वत अर्बुद (Myrincal Cancer) उत्पन्न होकर कुछ ही समय में जिह्वा का ही सर्वनाश कर देगें।
+++++++अर्थात मयूरासन करने के पूर्व यह ध्यान दें कि उसके अंशमेखला की पश्चवाहिनी अस्थि (Hindactive Bone) पाँचवीं कशेरुका से जुडी है अथवा नहीं। अन्यथा यह मयूरासन सदा के लिये स्थाई वृक्क रोग उत्पन्न कर देगा।
मैं योगा करने वाले ऐसे शिष्यों एवं आचार्यों का ध्यान इसी अध्याय के मन्त्र संख्या 8 की तरफ आकर्षित करना चाहूँगा। यदि ज्ञान, क्षमता एवं रूचि हो तो इसका अवश्य मनन एवं गवेषणात्मक विश्लेषण करें —
“ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीर्ऋतस्य धीतिररवृजिनानि हन्ति।
=====मैं इसका शाब्दिक अर्थ दे रहा हूँ ताकि इसके भाव को समझने में आसानी हो===
“यह सब कुछ है, परन्तु इन्द्र की कृपा का पात्र होने से पहले ठीक ठीक पात्रापात्र की नदियों को पार करना पड़ता है. इस यथार्थ नाप द्वारा, सोच विचार पूर्वक काम करने की आदत पाप को पनपने नहीं देती, नहीं तो बहुतेरे धूर्त ऋण के नाम से धन लेकर अपव्यव करते है. राजा की इस ठीक ठीक नाप की आदत का शोर इतना गहरा है कि वह बहरे कानो को भी चीरकर समाचार पहुँचा देता है. फिर प्रगतिशील मनुष्यो की तो बात ही क्या है?”
विशेष-इससे सम्बंधित अन्य उपयोगी विवरण मेरे अन्य लेखो में देखा जा सकता है. लिंक निम्न प्रकार है–
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments