प्रकृति, पूजा, औषधि एवं ज्योतिष
प्राचीन ऋषिमुनि, संत, विचारक एवं विद्वान त्रिकालदर्शी ऊर्ध्वनिष्ठ महात्मा एवं तपस्वियों ने प्राणिमात्र के उत्थान एवं सुख शान्ति के लिये प्रकृति के रहस्य को खूब उधेड़ा है. और इनका सम्यक पालन एवं इनका अनुकरण कर इन्हें आत्मसात करना निश्चित रूप से प्राणी को नैतिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक एवं आर्थिक रूप से अगम्य, अक्षुण्ण एवं अप्रतिम बना सकता है —–
“शुचि वो हव्या मरुतः शुचीनां शुचि हिनोमध्वरं शुचिभ्यः।
ऋतेन सत्यमृतसाप आयञ्छुचिजन्मानः शुचयः पावकाः।।”
(ऋग्वेद मण्डल 7, सूक्त 55, मन्त्र 12)
इसका शाब्दिक अर्थ—-
धरती माता के तुम पुत्र हो! क्या पवित्र तुम्हारा जन्म है!! तुम स्वयं पवित्र आचरण करने वाले हो और दूसरो को भी पवित्र करने वाले हो; यथार्थ नपे तुले ज्ञान वाले हो, सत्यपरायण हो और यथार्थ से चिपटे रहते हो. तुम्हारे जैसे पवित्र लोगो के हव्य अर्थात निमंत्रण की सामग्री भी पवित्र हैं. इस विश्वराष्ट्रनिर्माण-रूप पवित्र यज्ञ के लिये तुम सरीखे पवित्र लोगो को प्रेरणा करता हूँ और यज्ञ तुम्हें अर्पण करता हूँ.
===इस वैदिक मन्त्र का अपने स्वार्थ एवं अपनी आसानी हेतु इतना ही अर्थ कर आज कल तथाकथित पण्डित समुदाय अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. तथा स्वयं तो पतन के गर्त में गिरते ही हैं, श्रद्धालु, भक्त एवं प्रेमी आश्रित समुदाय को भी ठगते हुए उन्हें पथभ्रष्ट कर रहे है.
—-उपर्युक्त वेदमंत्र मरुतो को सम्बोधित करते हुए प्रकट किया गया है.
मन्त्र के शब्दों की रहस्यमय व्यापकता को देखें—“हव्या मरुतः”
शारीरिक ग्रंथियों से उपयोग-उपभोग उपरान्त उत्सर्जित वायु चाहे पूर्व में वह प्राण वायु ही क्यों न हो, वह भुक्त हव्य (संतुष्टि एवं प्रवर्द्धक सामग्री) ही होगी। तथा ग्रंथियाँ उसे पुनः ग्रहण नहीं कर सकती। अर्थात छोड़े हुए वायु को श्वसन के माध्यम से गृहीत नहीं किया जा सकता। अर्थात भले वह हवन सामग्री ही क्यों न हो एक बार स्वाहा करने के बाद उसे दुबारा मन्त्रप्रेरित नहीं कर सकते।
इसे तर्क सिद्धांत में निम्नवत कहा गया है–
“न च प्रभवो खेटाश्चरति निर्बंधे आवृत्त्योपि ज्याश्चलिताङ्कः।
शिशिरश्च शिखिह स्यात् विभावे यः नानुगृह्णाति यदा गृहम्”
. —-इसे ही ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि—
ग्रह अपनी स्थिति, अवस्था एवं बल का परिणाम देता है न कि व्यक्ति, स्थान अथवा नाम का.
“भेदाः सन्ति खेटानि स्वोद्भवः न वा परेषाम्।।”
=====आप देखें, यह स्वयं सिद्ध है कि मरुत स्वभाव से देव है, क्रिया-प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरुप ग्राह्य एवं त्याज्य है.
कुण्डली में चन्द्रमा ग्रह है, भाव के अनुसार गण्य या नगण्य है तथा अपनी स्वयं की स्थिति के अनुसार पूज्य या त्याज्य है.
नीलम एक पत्थर है. खाद्य के रूप में औषधि है तथा रत्न के रूप में कष्टहारी या प्राणघातक है.
=====उपर्युक्त मन्त्र के दूसरी आवृत्ति को देखें—
“ऋतेन सत्यमृतसाप आयञ्छुचिजन्मानः”
अर्थात उसकी प्रकृति, स्वभाव या आवश्यकता पूजने योग्य हो तो उसकी स्थिति, खाने (ग्रहण) करने योग्य हो तो परिमाण तथा धारण करने (साथ साथ रहने) योग्य हो तो उसकी रूचि (चर्या या शैली) नितान्त आवश्यक है.
किसी वायु (आक्सीजन) को जीवन दायी परन्तु एक सीमा तक अन्यथा अति दाहक, किसी वायु को अनूर्जक (एलर्जिक) तथा किसी वायु को प्राणघातक के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
अब ज़रा अंतिम दो शब्दों को देखते है—-
“शुचयः पावकाः”
वायु यदि अशुद्ध हो तो पावक (—पो+अकः=पावकः) से उसकी शुद्धि आवश्यक है न कि क्षीर से.
अकः ==इसमें अ उपसर्ग मतान्तर से प्रत्यय है, क का अर्थ पानी न कि जल तथा विसर्ग (:) पद है.
जल- जैवेन प्राप्स्यते लयम् अर्थात जीव का अंतिम एवं आदि स्रोत।
पानी- पूतः नयमानत असौ अर्थात नेतृत्व की पवित्रता
मुख्य विषय-
दुर्गन्धित वायु से प्रदूषित वातावरण या पर्यावरण के निवारण हेतु विविध हवन तथा धूपादि द्रव्यों का सेवन। किन्तु यहाँ पर भी प्रदूषण की स्थिति, प्रकृति एवं मात्रा का ध्यान रखना पड़ता है.
हवन में मिलायी गयी सामग्री यदि निश्चित एवं निर्धारित नहीं हुई तो सुगन्ध के साथ विघ्न या व्याधिकारक हो जाती है.
“तीतिरक्षुः क्रव्यादयः ऋतेषु हन्ति वा न च निर्पलाक्षमवर्द्धवान।”
डिक्लोमेटिक थियाडीन (ज़हरीली गैस) के निवारण हेतु मेथाक्साडाइड एक्सिलरेट का प्रयोग करना चाहिये न कि डेक्सामिथासिन का.
या सीधे शब्दों में प्राण रक्षा के लिये चिकित्सालयों में आक्सीजन दिया जाता है न कि क्लोरीन गैस. वह भी एक निश्चित अंतराल एवं मात्रा में. जब कि आक्सीजन एवं क्लोरीन दोनों ही गैसे है.
पण्डित आर के राय
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