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वनस्पति एवं आवास

वेद विज्ञान
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++++वनस्पति एवं आवास++++
मेरे पूर्व के लेख से सम्बद्ध एक मित्र के प्रश्न के सन्दर्भ में—-
​सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूँगा कि एक उस उद्धरण का स्मरण करें जब वशिष्ठ एवं विश्वामित्र का ईर्ष्या विवाद चरमोत्कर्ष पर था. और विश्वामित्र तथा वशिष्ठ ने अपने तपोबल (==वनस्पति विज्ञान) की सिद्धि से अपने अनुयायियों के लाभार्थ विविध वनस्पतियो को (वर्णशंकर) Hybrid रूप में या कलम कर के निष्पादित/उत्पादित किया।
अतः वेद में किसी वनस्पति का उल्लेख एक भ्रम मात्र ही हो सकता है. प्राकृत्तिक कारणों से होने वाले भौगोलिक, पर्यावरण एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों से वैदिक काल की वनस्पतियो का तदनुरूप उल्लेख उचित नहीं जान पड़ता।
वेद में वर्णित सारगर्भित किन्तु आश्चर्यजनक रूप से सत्य सिद्ध एवं प्रामाणिक संकेतो के आधार पर आज आज विश्व के अति विकशित कहलाने वाले अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देश ऐसे अनेक वर्णशंकर वनस्पतियो का उत्पादन कर सके है. वेद के इस संकेत भरे सुपुष्ट मन्त्र को देखें—
“नानानं वा उ नो धियो वि व्रतानि जनानाम्।
तक्षा रिष्टं रुतं भिषग्ब्रह्मा सुन्वन्तमिच्छतीन्द्रायेन्दो परि स्रव।।”
(ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 112 मन्त्र प्रथम)
उपर्युक्त मन्त्र में आप एक एक शब्द को देखें— “नानानं, भिषग्ब्रह्मा, तक्षा, रिष्टं”
इसे देखें-
इस संसार में जीविका साधन मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुरूप करता है.===”अन्यते जीव्यते अनेनेति ” आनम्” जीविका-साधनम्।।”
इनके अनेक ध्येय हैं. वैद्य रोने चिल्लाने वालो की तलाश में है कि उसे ठीक कर दूँ. ब्रह्मा सवणकर्त्ता की तलाश में है. बढ़ई मरम्मत के योग्य वस्तु की तलाश में है. शिल्पकार पीड़ित आवासियों की तलाश में है ताकि उसके आवास को दोषरहित कर उसे निर्दोष कर सकूँ।
अब थोड़ा इसी मण्डल के 113वें सूक्त के 2सरे मन्त्र को देखें—
“आ पवस्व दिशां पत आर्जीकात सोम मीढ्वः।
ऋतवाकेन सत्येन श्रद्धया तपसा सुत इन्द्रायेन्द्रो परि स्रव।।”
अर्थात
औषधि चतुर वैद्य ने प्रकृति से अपहृत किया। “आर्जीक” की सहायता से उनके पञ्चधा एकीकरण कर उसे नया रूप दिया।
“आर्जीक” ===थोड़ी से थोड़ी सामग्री से अल्प से अल्प समय में अधिक से अधिक पदार्थ उत्पन्न करने वाला ऋजु अर्थात दो विन्दुओं के बीच में एक लघिष्ठ सरलरेखा उत्पन्न करने वाला चतुर इंजीनियर “आर्जीक” कहलाता है.
ऐसे आर्जीक की सहायता से काट-छाँट, सम्मिश्रण तथा पोषण के द्वारा आवश्यकता के मुताबिक़ “उद्भिद्” प्रकाश में लाया जो अपने पूर्ववर्ती से गुण, प्रकृति, रूप एवं आकार में भिन्न था.
ऋतवाक (=यथार्थ भाषण), सत्य (=ईमानदारी), श्रद्धा और तप- इन मसालों से तेरा सवन-निर्माण हुआ है, तू बिकेगा भी तो उस सच्चे परीक्षक की दुकान में. बस उसी की सीध में बढ़ता चल.===यही इसका शाब्दिक अर्थ हुआ.
=====ध्यान दें—
इसी उद्भिद् शब्द को लक्ष्य कर Hybrid पद्धति के आधार पर शुभ फल देने वाली वनस्पतियो का विकाश हुआ है जिसे उपरोक्त विकशित देशो में विविध “English” नामो- कैक्टस, पारागनी आदि नामो से जाना जा रहा है.
इसका कैसे वास्तु दोष को हटाने या उसे कम करने के योग्य बनाया जाय, उसे पाश्चात्य आधुनिक वैज्ञानिकों ने वास्तुदोष के प्रकार, कारण एवं गहनता का अध्ययन कर उस अनुरूप नयी वनस्पति नस्ल तैयार कर रहे है. जिनका उपयोग विविध “बड़े लोग” गमलो तथा “हारबेरियम” आदि में घरो में कर रहे है.
====और हम इसके पीछे की वास्तविकता को न समझकर उनका नक़ल करते हुए जो भी पौधा जी में आया उसे गमले में भरकर घर में रख लिया।
–उदाहरण स्वरुप—-
सेरोडार्बिया नामक पौधा जिसे लोग सुन्दर दिखने के लिये घरो में लगाते है, वह अपना क्लोरोनियेट पानी में छोड़ता है. पानी से नाइट्रो सल्फाइड बनाता है है और उससे अपना पोषण करता रहता है,
किन्तु नाइट्रो सल्फाइड के अवशोषण के बाद उससे निकलने वाली पोलोनियाइड वायु घर में शुक्र जनित रोग (Genital Disability) तथा गलित कुष्ठ (Chronic Leprosy) उत्पन्न करती है.
(वनस्पतियो के कलम या वर्णशंकर की शास्त्रीय एवं आयुर्वेदीय विधि क्या होनी चाहिये, यदि मातारानी की कृपा रही तो बताने का प्रयत्न करूँगा)
पण्डित आर के राय
Email-khojiduniya@gmail.com

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