हमारी मूल संपदा- वैदिक संपदा जिसका अपहरण हो रहा है.
वेद विज्ञान
497 Posts
662 Comments
हमारी मूल संपदा- वैदिक संपदा जिसका अपहरण हो रहा है.
जानि कष्ट जे संग्रह करहीं.
कहहु उमा ते काहे न मरहीं.–रामचरित मानस
चोर, आततायी एवं लुटेरे को अवसर ही मत दो ताकि तुम्हारी संपदा को वे नष्ट कर सकें.
क्या आप देख रहे है या देखने का साहस या ज्ञान रखते है कि कैसे आप के उपनिषद् एवं वेदों की मूल संपदा चुराई जा रही है?
वैदिक संपदा जिस पर यवन, म्लेच्छ एवं मानवता के लुटेरे सदा से ही गिद्ध दृष्टि लगाये हुए हैं. और हमें लूट लेने के लिये सदा तैयार बैठे है.
और हम उनके जाल में जड़ तक उलझते चले जा रहे है.
ठीक ऐसे ही जैसे–
चोरो ने घर में से हीरे, मोती, जवाहरात लूट लिये और भागने लगे. जब घर मालिक ने उनका पीछा किया तो उन चोरो ने कुछ स्वादिष्ट चीजो को रास्ते में बिखेरते हुए भागना शुरू किया. घर मालिक उन स्वादिष्ट वस्तुओं को ही इकट्ठा करने सहेजने में रह गया और चोर अनमोल खजाना लेकर भाग गये.
ठीक वही स्थिति आज हमारे साथ है. देखें हमारे मूल ग्रंथो में उलजुलूल तथ्यों को घुसेड कर कैसे ये म्लेच्छ हमें उन मिथ्या तथ्यों को मूल समझने के लिये मजबूर कर रहे है और स्वयं उन मूल तथ्यों को अपहृत कर स्वयं उनका उपभोग और उपयोग करते हुए हमारे सिरमौर बन रहे है–
इन दोनों ग्रंथो में एक ही भाषा में यह वर्णन दिया गया है. अब इसका भाव देखें जो “कोकशास्त्र” को भी पीछे छोड़ देने वाला है. यद्यपि इस सोसल पोर्टल पर इसका इतना अश्लील अर्थ लिखने में संकोच हो रहा है किन्तु प्रसंग वश इसे लिखना पड़ रहा है. इसका अर्थ यह हुआ कि—-
स्त्री अग्नि है. पुरुष का लिंग समिधा है, स्त्री का गुप्ताँग ही ज्वाला है, उसका आकर्षण ही धूम है, उसमें प्रवेश ही अंगार है, आनंद ही चिंगारी है और रेत ही आहुति है.
आगे देखें—
उपमंत्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथाः प्रति स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम.–(छान्दोग्य 2/13/1)
अर्थात संदेशा भेजना हिंकार, संकेत करना प्रस्ताव, रति उदगीथ, प्रत्येक स्त्री के साथ मुंह काला करना प्रतिहार, और रुकावट तथा वीर्यपात निधन है.
इसके आगे देखें—
स य एवमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतं वेद मिथुनी भवति मिथुनान्मिथुनात्प्रजायते सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान प्रजया पशुभिर्भवति महान् कीर्त्या न काँचन परिहरेत्तद व्रतम.—(छान्दोग्य 2/13/२)
अर्थात जो वामदेव्य गान को मैथुन में ओत प्रोत जानता है वह मिथुनी (मैथुन में प्रवीण) होता है. इस मैथुन से संतान वाला होता है. सारी आयु सुखी रहता है. बहुत दिन जीता है, बहुत धनी और बड़ा कीर्ति वाला होता है, इसीलिये किसी स्त्री को नहीं छोड़ना चाहिये, यही व्रत है.
अर्थात यदि इच्छा हो कि मेरा पुत्र पण्डित, सभा में जाने योग्य, अच्छा भाषण करने वाला, सब वेदों का ज्ञाता, और सारी आयु सुख से रहने वाला हो तो उसे चाहिये कि वह घोड़े या बैल का मांस घृत मिले भात के साथ खाए.
विद्वज्जन थोड़ा ध्यान दें—
क्या उपरोक्त वर्णन में गद्यरचना के मूल सिद्धांत “विसर्पते उपनिषदौ स्खलति यद्यांते” का पालन किया गया है?
यदि यह वेद के कतिपय उद्धरण से सम्बंधित है तो–
“नः सीदथे वद्भ्रन्ज्यु सामिषे घ्नति तन्मूर्द्धा”
इस प्रकरण का वेद में क्या तात्पर्य?—यदि जीव पालन के लिये जीवन संहार है तो जीव पालन क्यों?
प्रत्यार्हषणम अपरा विश्वं
अर्थात जगत जीव विशेष से नहीं अपितु जीव जगत विशेष से है.
तो क्या ये उपरोक्त वाक्य उपनिषद् के मूल वाक्य हो सकते है?
इसके अलावा यदि ये प्रामाणिक है तो स्वयं भगवान् कृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा है की—
यजन्ते नामयग्यैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम”
अर्थात ये असुर यज्ञो में मांस मद्य और व्यभिचार की ही प्रधानता रखते है.
इसीलिये इन अनार्य असुरो ने समस्त राक्षसी लीला को ब्रह्मविद्या के नाम से उपनिषदों में बड़ी खूबी के साथ मिश्रित किया है. वे समझते थे कि सभी लालायित होते है कि हमारे घर में सर्वांग सुन्दर और विद्वान लड़का हो, अतः ऐसी शास्त्राज्ञा पाकर सब लोग बिना किसी शास्त्रीय या धार्मिक भय के मांस खाने की ओर झुक जायेगें. वही हो भी रहा है. समस्त आर्य जाति इसी प्रकार के आसुरी साहित्य के कारण मांस भक्षण जैसी आसुरी प्रवृत्ति को शास्त्र मत मानने वाली होती जा रही है या बहुतायत में हो भी गयी है.
इसका भगवान् श्री कृष्ण ने असुरो की माया के रूप किस प्रकार वर्णन किया है इसे गीता के सोलहवें अध्याय में देखा जा सकता है.
=====हे वेद के विशेषग्य कहे जाने वाले या स्वयंभू वेद के आचार्य!!! क्या इसकी तरफ आप देखें का प्रयत्न करेगें कि किस प्रकार इस महान संपदा का अपहरण हो रहा है?
क्या ब्राह्मण सूचक उपाधि धारण कर वास्तव में असुरो की भूमिका अदा करते रहेगें? और अपनी कपटी मुनि की माया की तरह जैसे राजा भानुप्रताप ठगा गया और रावण का जन्म पाया उसी तरह स्वयं और श्रद्धालु धर्मावलम्बियो को भी राक्षस बनाकर उनके कुल परिवार सब को नरक भेजते रहेगें?
हे मातारानी!!! हे भुवनेश्वरी!!!! अब आप ही रक्षा कर सकती है.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments