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यकृत- पीलिया, मधुमेह एवं कैंसर

वेद विज्ञान
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(पहले चित्र में दिये गये विवरण को देखें)

महाअथर्वण के दर्भमालिका उपाख्यान में कहा गया है कि-
ह्रस्वस्त्यन्नो नविजाघ्नूं जहात्ययः मूर्द्धहिनो परावलय दर्भिनः समग्रात.
र्यभिनाहदोर्द्ध्वः अपरमनुक्रमात सैरन्ध्र व्यूहश्च कर्षवाहे रक्तविशूचिकाश्च.
इसका विवरण संलग्न चित्र में दे दिया गया है कि पीलिया या यकृत का कैंसर क्यों होता है. किन्तु जो निर्देश उपरोक्त कथन में दिया गया है वह बिलकुल सटीक, सफल एवं समुचित व्याधि निर्मूलन योग है–
कृष्ण पक्ष के किसी रविवार या मंगलवार को सूर्यास्त के बाद अँधेरे में लकड़ी के नुकीले भाग से खोद कर कम से कम पाँच पत्ते वाला दर्भ अर्थात कुशा निकाले. अच्छी तरह उसे साफ़ पानी से धो ले. उसके बाद उसकी मात्रा के बराबर बकायन, दिथोहरी, तुलसी, समरपाल, गोदंत, पवनमेरू एवं गन्ने के सिरके को एक साथ मिलाकर एक मिटटी के संकरे मुंह वाले बर्तन में डालकर 27 दिनों तक इस बंद मुंह वाले बर्तन को गीली मिटटी में लपेटते हुए गहरे मिटटी में दबा दे. उसके बाद उसे निकाल कर महीन कपडे से छान ले और उसे छाने पदार्थ को दो सामान भाग में बाँट ले. एक भाग में शँख एवं सैन्धव नमक बराबर मात्रा में मिलाकर चूर्ण या दो दो रत्ती की टिकिया बना ले. तथा शेष द्रव पदार्थ में उसकी मात्रा के पांच गुना आमले का स्वरस मिलाकर इस मिश्रण के एक एक तोले के साथ एक एक उपरोक्त निर्मित टिकिया खाये. मात्र एक ऋतु (दो महीने) में व्याधि निर्मूल हो जाती है.
उपरोक्त योग में एक द्रव्य निर्मित हो जाता है जिसे भैषज्य के शब्दों में निर्सूक्तपरिव्यात कहा गया है जिसमें यह क्षमा होती है कि जहाँ भी रायस निकलता होता है इसका मुंह स्वतः उधर ही खिंच जाता है और भोजन का एक एक टुकडा इसके मध्य से होकर गुजरने के लिये मजबूर हो जाता है. और यह अवस्था चिर स्थाई हो जाती है. फिर पुनः पीलिया, कैंसर या मेह के पलटने की संभावना समाप्त हो जाती है.
ध्यान रहे, इस औषधि के संयोग में रस सिन्दूर या पारद का कोई यौगिक नहीं होना चाहिये.
—–सम्बंधित अन्य विवरण मेरे फेसबुक के विविध निबंधों में देखा जा सकता है जो वेदविज्ञान नामक पेज पर उपलब्ध है.

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