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योग-प्राणायाम से पहले एक बार देखें–

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
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क्या आप देखते हैं कि आज लोग भस्रिका, कपालभाति आदि क्रियायें कैसे करते हैं? इतनी जोर जोर से श्वास अन्दर बाहर करते हैं तथा पेट की अंतड़ियों को इतना वेग से घुमाते हैं कि पसीना छूटने लगता है.
प्रस्वेदजनको यस्तु प्राणायामेषु सोSधमः.
कम्पे च मध्यमे प्रोक्तः उत्थानश्चोत्तमे भवेत्.–योगियाज्ञवल्क्य 6/25
अर्थात प्राणायाम काल में शरीर से घर्म (पसीना) निर्गत होने से वह अधम, कंप होने से माध्यम एवं शून्य में स्थित होने से उत्तम योग कहा जाता है.
यदि ऐसा होने लगे तो-
स्वेदः संजायते देहे योगिनः प्रथामोद्यमे.
यदा संजायते स्वेदो मर्दनं कारयेत सुधी.
अन्यथा विग्रहे धातुर्नष्टो भवति योगिनः.–शिवसंहिता 3/49
अर्थात यदि ऐसा करने से शरीर से पसीना आने लगे तो उसे सर्व शरीर में मर्दन करे. ऐसा न करने से समस्त शरीर में धातु विनाश को प्राप्त होती है.
उसके बाद दार्दुरी गति अर्थात भेक (मेढक) के सामान गति होती है.
द्वितीये हि भवेत् कम्पो दार्दूरी मध्यमे मतः.
ततोSधिकतराभ्यासाद्गगनेचरः साधकः.–शिवसंहिता 3/50
अर्थात यदि वायु रोकने के स्थिति में श्वास प्लुतगति के समान संचलित होती है. शरीर में मेढक के समान फूलना-पिचकना आदि कम्पन होता है. ऐसी अवस्था में बहुत धीमे प्रयास करें. गति रोकें. उसके बाद जब इस पर नियंत्रण हो जाता है तो साधक शून्य में विचरण करने लगता है.
इस सम्बन्ध में मैं पहले भी अपना एक आँखों देखी घटना का उल्लेख कर चुका हूँ.
26 दिसंबर 1978 जब मैं विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) के छात्र सदस्यों के साथ उत्तर प्रदेश के रुद्रप्रयाग से 98 किलोमीटर उत्तर-पूर्व शिलापांचाल प्रपात के पास ठहरा हुआ था तब प्रातः काल शौचादि के लिये ऊबड़ खाबड़ पहाड़ियों के मध्य निकला था. इसी समय एक महात्मा नंग धडंग (Stark Naked) आते हुए दिखाई दिये. हममे से कुछ स्वाभाविक उद्दंडता एवं छात्र उच्छ्रिन्खलता से युक्त थे. उन्होंने उस महात्मा को घेर लिया. एक छात्र बोला-
महात्मा जी आप तो बहुत पहुंचे हुएलगते है. हम इतने मोटे ऊनी कपडे पहन कर भी ठण्ड से काँप रहे हैं. और आप नंगे हैं फिर भी लग रहा है आप पसीने से भीगे हुए हैं.
महात्मा जी उतर दिये- नहीं बच्चे, यह पसीना नहीं है. यह बर्फ से भीगा हुआ है.
छात्र बोला- अच्छा बाबाजी, यह बतायें, आप कुछ जानते भी हैं या झूठ मूठ का यह ढकोसला बनाए हुए हैं.?
महात्माजी बोले, – नहीं बच्चा, मुझे कुछ ज्ञान नहीं है. बस थोड़ा अभ्यास कर लेता हूँ.
लड़का बोला- नहीं नहीं बाबाजी, आप कुछ बतायें, आप जरूर कुछ जानते हैं. नहीं तो आप को ठण्ड क्यों नहीं लगती?
महात्माजी लड़कों की नीयत कह्चान गए. वह समझ गये कि ये लोग आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं. वह बोले-
ठीक है भाई, नहीं छोड़ोगे तो एक छोटा सा अभ्यास मैं जो जानता हूँ उसे ही दिखा देता हूँ.
और महात्माजी बद्धपद्मासन स्थिति में बैठ कर श्वास अन्दर खींचने लगे. वह केवल श्वास खींचते रहे. पूरा याद नहीं, किन्तु तीन मिनट के आसपास वह केवल श्वास खींचते ही रहे. उनका पेट फूलकर बड़े गुब्बारे जैसा हो गया. और वह पद्मासन की मुद्रा में ही धीरे धीरे आकाश में ऊपर की तरफ ऊपर उठने लगे. जब वह ऊपर उठने लगे हम डर गये. आपस में ही झगड़ने लगे कि दुष्टता वश ऐसे छोटी के साधु से छेड़खानी कर दिया. अब तो यह महात्माजी नीचे आयेगें और हमें अपने शाप से भस्म कर देगें/ हम यही बात करते रहे और एक दुसरे को दोष देते रहे. इतने में वह महात्माजी, लगभग 40 फीट से भी ऊपर जा चुके थे. और फिर वह धीरे धीरे नीचे उतरना शुरू किये. जब वह जमीन पर स्थिर हो गये तब उन्होंने श्वास छोड़ना शुरू किया. क्योकि तब तक उनके शरीर से ज्यादा वायु बाहर निकल गयी थी जिसे उन्होंने नीचे उतरते समय धीरे धीरे छोड़ा था. और जब उनका पेट स्वाभाविक अवस्था में आ गया तब उन्होंने धीर से आँखें खोली. उनकी आँखें रक्त वर्ण की लगभग सुर्ख हो गयी थीं. हम लगे गिडगिडाने. हम कहने लगे कि महात्माजी, क्षमा कर दीजिये. हम से बहुत बड़ी गलती हो गयी.
महात्माजी बोले, बेटे एक गरीब भिखारी को तुम दान में क्या देते हो और क्यों देते हो?
हम बोले- महात्मा जी धन पैसा आदि देते हैं क्योकि उसके पास रुपया पैसा नहीं होता है.
महात्मा- क्या तुम उस पर क्रोध करते हो?
लड़का- उस पर क्रोध क्यों करेगें महात्माजी, बेचारे के पास यदि खानेपीने का धन सामर्थ्य आदि होता तो वह भीख क्यों माँगता?
महात्माजी बोले- बेटे तुम भी भिखारी हो–किन्तु बुद्धि के. यदि तुम्हारे पास बुद्धि होती तो तुम मुझे नहीं चिढाते. इसलिये मैं तुम्हें भिक्षा के रूप में क्षमा दान दे रहा हूँ. भिखारी पर क्रोध नहीं करना चाहिए. मैं तुम पर क्रुद्ध नहीं हूँ. मैं भगवती से प्रार्थना करता हूँ तुम्हे सद्बुद्धि मिले. अस्तु—
वैसे विज्ञान पर इतराने वाले एवं योग-मन्त्र आदि को न मानने वाले कम से अपने विज्ञान को तो मानेगें ही कि आर्किमिडीज के सिद्धांत के अनुसार जब किसी वस्तु के द्वारा हटाये गए द्रव पदार्थ का भार वस्तु के भार से ज्यादा हो जाता है तो वस्तु उस द्रव पदार्थ में तैरने लगती है. या गुब्बारे में भरी वायु का भार उसके चारो तरफ वर्तमान वायु के भार से कम हो जाती है तो गुब्बारा हवा में ऊपर उड़ जाता है. इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए.
अब मुख्य विषय पर आते हैं.
योग साधना में पसीना का आना प्रतिबंधित होता है.
क्योकि पसीना के आते ही रोम छिद्र खुल जाते हैं. और वायु रूप में जो ऊर्जा कुम्भक आदि के द्वारा बहार निकलना चाहिये वह इन रोम छिद्रों से बहार निकलने लगता है. जिससे अनपेक्षित एवं अयुक्त प्रक्रिया से रक्त, वसा, मज्जा, अस्थि एवं मांस में विकार, दूषण आदि उत्पन्न हो जाता है. इसलिये योगाभ्यास के समय पसीना नहीं आना चाहिये.
आज का राकेट इसी सिद्धांत पर उड़ान भरता है. यदि उसके चारो तरफ छेड़ किया जाय तो भाप या धुवाँ अनेक दिशाओं से निकलने लगेगे और राकेट किसी अन्य दिशा में जाकर दुर्घटना ग्रस्त हो जायेगा. इसीलिये उसमें मात्र एक ही निकास द्वार पीछे की तरफ होता है और न्यूटन की गति के तीसरे सिद्धांत के अनुसार निकलने वाला धुवाँ उसे वेग से विपरीत दिशा में धकेलता चला जाता है.
आप सोच सकते हैं कि न्यूटन आदि ने किस तरह हमारे इन प्राचीन योग-तंत्र आदि सिद्धांतों का अधूरा ही सही, अध्ययन किया और अपना नाम आविष्कारक के रूप में प्रसिद्ध किये.
तथा हम इस विद्या के मूल अधिकारी इन सिद्धांतों को पुस्तकों में बाद करके संदूक-आलमारी में संजो कर रखते है जिसे दीमक आदि कीड़े कागज़ समेत अध्ययन कर के चट कर जा रहे हैं.
यह योग ही ऐसा है कि —
“अथाभ्यासवशाद योगी भूचरीम सिद्धिमाप्नुयात”

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