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राजयोग का तांत्रिक विधान भाग 2

वेद विज्ञान
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राजयोग तांत्रिक विधान

====पिछले लेख से आगे====
पीछे मैं तांत्रिक राजयोग के बारे में बताया था. उसके बारे में मैंने पञ्चव्योम आदि का उल्लेख किया था. ध्यान रहे आरंभिक अवस्था में ये सब सुषुप्त रहते हैं. ये पञ्चव्योम परस्पर जहाँ मिलते हैं वह शरीर में चार स्थान बताये गए हैं- केतुवीथी, विशाखवीथी, दत्तवीथी, रोधवीथी एवं विररामवीथी. केतुवीथी सिर पर शिखा के जड़ में होती है. विशाखवीथी दोनों कंधो की संधियों पर, दत्तवीथी दोनों कुहनियों पर, रोधवीथी कमरबंध पर एवं विरारामवीथी घुटनों पर.
जब मन्त्र सिद्धि करने बैठें तो पहले तर्जनी ऊंगली से शिखा के मूल अर्थात केतुवीथी पर दबाव बनायें और पूर्व बताये मन्त्र का पाठ करें. इसी प्रकार शेष वीथियों पर भी मन्त्र पढ़ते हुए दोनों हाथों से दबाव बनाएं.
शरीर में एक सनसनाहट उत्पन्न होगी. पसीना आने लगे तो हाथ से उसे मल देवें. उसके बाद पूर्व लेख में बताये विधान से आगे का कार्यक्रम करें. बिना विधि विधान के साधना निष्फल है-
क्रमदीक्षा विहीनस्य कथं सिद्धिः कलौ भवेत्.
क्रमं बिना महेशाणी सर्वं तेषां वृथा भवेत्.–कामाख्या तंत्र 32
अर्थात कलियुग में क्रमदीक्षा के बिना कोई मन्त्र सिद्धि नहीं होती है. एवं क्रम बिना सब पूजा व्यर्थ हो जाती है.
क्रमदीक्षा के लिये सबसे पहले किसी भिज्ञ साधक से सिद्ध किये जाने वाले मन्त्र का तात्पर्य एवं कारण समझ लें. अन्यथा-
मंत्रार्थ मंत्रचैतन्यं योनिमुद्रा न वेत्ति यः.
शतकोटि जपेनापि तस्य विद्या न सिद्ध्यति.–सरस्वती तंत्र
इसके लिये वह सिद्ध भिज्ञ साधक उपदेष्टा ही आवश्यक है. अन्यथा-
अन्धकारगृहे यद्वन्न किंचित प्रतिभासते.
दीपनीरहितो मंत्रस्तथैव परिकीर्तितः.–सरस्वती तंत्र
अर्थात अँधेरे में जहाँ रोशनी न हो, वहाँ किसी चीज को कैसे ढूँढा जा सकता है. अब यह हाथ करना कि बिना किसी दीपक या रोशनी के ही वस्तु ढूँढी जाएगी तो ऐसी अवस्था में घायल होने की भी संभावना हो जाती है. कोई कीड़ा काट ले, किसी चीज से अँधेरे में चोट पहुँच जाय आदि. अतः रौशनी आवश्यक है. इसी प्रकार अँधेरे में मन्त्र पाठ का क्या औचित्य? इसके लिये अर्थात मार्ग बताने के लिये एक उपदेशक की नितांत आवश्यकता होती है.
पिछले लेख में मैंने त्रिधातु की आकृति का उल्लेख किया है.
प्राथमिक अवस्था मे तथा वर्तमान समय की कलुषता के कारण शरीर में आये विकार को ध्यान में रखते हुए सर्व प्रथम इसका प्रयोग एका एक शरीर पर नहीं करना चाहिए. इसकी सिद्धि पहले इस आकृति पर ही कर के इसे जागृत कर लेना चाहिये. उसके बाद यही आकृति धीरे धीरे शरीर में भी इस मन्त्र को स्थायी करने लगती है.
राजयोग की सिद्धि में यह सतत सिद्ध योग है.

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