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इन्द्रिय प्रणाली एवं वैदिक योग

वेद विज्ञान
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परिवेश

यौगिक इन्द्रिय प्रणाली
चन्द्रमा का जन्म मन से होता है. मन के अधीन दश कर्मकार – पाँच कर्मेन्द्रिय एवं पाँच ज्ञानेन्द्रिय, अर्थात इन्द्रियाँ हैं. इन्द्रियों के द्वारा जो संवेदना या सूचना मन को प्राप्त होती है उसी के आधार पर मन कार्यवाही करता है. इसीलिये मन की स्थिति स्थिर नहीं रहती है. जिससे जीवन में नित नये परिवर्तन के आयाम बनते चले जाते हैं.
शौक्तिक प्रश्न्युह दवः नेमि प्रवाहं यन्मुक्ता तदुच्यते
इन्द्रियों की शक्ति मन के पास पहुंचते ही क्षीण हो जाती है. या उनमें एक रिक्तिका जन्म ले लेती है. अपने कार्यप्रवाह की निरंतर शैली से मन पुनः उसे जुगुप्सा या उत्कंठा से भर देता है. और इन्द्रियाँ इस प्रकार वैभविक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो पाती है. और अंत में मन पुनः इन इन्द्रियों रुपी घोड़े पर सवार रहता है. चित्र संख्या 1
चित्र संख्या 2 में देखें-
जब ये प्रवाही इन्द्रियाँ मन को संवेदना या सूचना प्रदान करती है तो सदा इनका प्रवाह पीछे से ही होता है. कारण यह है कि सम्मुख आँख विराजमान रहती है–चक्षो सूर्योSजायत–और इन सूचनाओं का इस प्रकार सामने से आने से इनमें विकेंद्रीकरण हो सकता है. और फिर मन इनका निराकरण नहीं कर पाता है. और इन सूचनाओं के मन के पास पहुँचने से पहले ही इन्द्रियाँ खाली हो जाती हैं. तथा अधोमुखी मन का शीर्ष भाग कठोर होता चला जाता है.
चित्र संख्या 3-
जब ये सूचनायें सम्मुख से जाना प्रारम्भ करती हैं तो इनका स्थूल रूप चक्षु ऊर्जा से भस्मीभूत होता जाता है. क्योकि सूर्य के पास कुछ भी स्थूल रूप नहीं रह पाता है. —नैवं द्रुह्यते चाक्षुश्चापरे पितरः विनियोजनाम —आँखों से सामना हो जाने के पश्चात जीव का अंतरिम रूप पितृलोक वासी हो जाता है.
वशिष्ठ के अनुसार अधोमुखी मन के पृष्ठ भाग के संधि भाव को सम्मुख लाने की प्रक्रिया को उन्मुक्तायाम कहा जाता है. जीव अपने शरीर से किसी प्रकार का कोई हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल इत्यादि सम-विषम उतार चढ़ाव नहीं अनुभव करता. क्योकि इनका प्रतिदाह रश्मिगत ऊर्जा के द्वारा कर दिया जाता है. और प्रवाही तंतु या इन्द्रियाँ अब इन कार्यों के लिये अनाभ्यासी हो जाती हैं.
और धीरे धीरे इन्द्रियों का संपर्क मन से टूटता चला जाता है. और —-
अन्दर से चन्द्रमा तथा बाहर से सूर्य दोनों मिलकर मन को अपने अंकपाश में बद्ध कर देते हैं.
तदेव मे प्रतिच्युति सगर्भ वह्निः सोर्द्ध्वं गह्वराधिभासिनीम् —
इसके लिये विविध विशेषज्ञ आचार्यों ने अनेक विधान बताये हैं-
नविचुरि अर्थात आकृति व्यायाम के द्वारा उपाकर्म निदान
अपूर्व विन्ध्या अर्थात नाव्यपाश के द्वारा वाक् आयाम
हविशेण दण्ड के द्वारा अभिप्षाघात आदि
पुरुष सूक्त में इसका क्रम ही इसी पर आधारित है-
नाभ्याSSसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्वौ समवर्ततः
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्राँस्तथा लोकांSSकल्पयन्
बस—
आवश्यकता है
शरीर की स्थूल शीतलता को सूर्य की त्रिरश्मिगत सात घोड़ों–मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु, को चन्द्रमा के ऊपर ऊपर ही संचारित कराना एवं उनकी भेदगत उत्थान-पतन आदि स्निग्धताओं को सौर ऊर्जा में भस्म करना.

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