हम किसी योगी, उपदेशक या विशेषज्ञ को योग-प्राणायाम करते हुए देखते हैं तो बिना सोचे समझे उसकी नक़ल करते हुए उसी तरह हम भी योग प्राणायाम आदि शुरू कर देते है, तथा किसी कठिनाई के आ जाने पर या उस क्रिया आदि से कोई लाभ हाथ न लगने पर निराश होकर उस विधा को भला बुरा कहने लगते हैं. किन्तु थोड़ा ध्यान दें–
पिंडली से घुटना तथा घुटना से कमर तक 16-16 अंगुल की दूरी होती है. इसके अन्दर स्थित नादियों को परायौमिक नाड़ियाँ कहते हैं. या दूसरे शब्दों में ये अन्य नाड़ियों के नौकर चाकर का काम करती हैं. इनका संचालन ऊर्द्ध्वाधर अर्थात नीचे ऊपर दोनों तरफ होता है. जब किसी शारीरिक संवेदना या मन के आदेश को अपने योग्य न होते हुए भी ये नाड़ियाँ अनमनस्क रूप से इनके साथ परिवहन करती हैं तो इनमें पहले से आदत न होने के कारण अवरोध उत्पन्न हो जाता है. इसे निपात संधि कहते हैं. यद्यपि यह प्रत्यक्ष आँखों से नहीं दिखाई देता है. किन्तु जब पद्मासन या वज्रासन या सुखासन में बैठते हैं तो इनमें फैलाव होने लगता है. और यदि तर्जनी ऊँगली को घुटने के जोड़ अर्थात लिगामेंट मेड्यूला पर रहकर जंघे के सहारे पैर मोड़कर दबाते हैं तो पता चल जाता है कि अंगुली के विभिन्न हिस्सों पर असमान दबाव या झटका लग रहा है. मेंथी, हल्दी, जवाकुसुम एवं सफ़ेद चन्दन का लेप इस पर पांच दिन लगाने से यह दूर हो जाता है. उसके बाद ही आसन लगाना आसान एवं निरापद हो पाता है.
कमर की संधि पर जिन नाड़ियों का सम्मिलन होता है उसे जिह्वा मेरु कहते हैं. कुछ एक नाड़ियाँ किन्हीं शारीरिक व्यवधान के कारण सुप्त पद जाती हैं तथा उनका काम पूरक रूप में अन्य नाड़ियाँ करती रहती है. परिणाम स्वरुप सुषुम्ना की अनेक संवेदना वाही नाड़ियाँ बिना काम के होकर धीरे धीरे सिकुड़ती चली जाती हैं. जिससे तंतुओं में खिंचाव होता जाता है. और सुषुम्ना का कुंदक जो अधोमुखी होकर नाड़ीजाल अर्थात कुण्डलिनी के ऊपर लटका रहता है, वह कुण्डलिनी तथा अन्य वाहिकाओं से पृथक होता जाता है. तथा नपुंसकता, आलस्य और बुरे आचरणों में प्रवृत्ति बढती जाती है. इसका लक्षण है कि रीढ़ रज्जु की नवीं कशेरुका एवं अधोक्षज अर्थात लम्बर रीजन में दाहिने की अपेक्षा ज्यादा उभार होता जाता है. अमलतास. गाय के कच्चे दूध एवं बहेड़ा की कच्ची मींगी को पीसकर तलवे पर लगाकर साफ़ कपडे से लपेटकर बाँध कर रात में सो जाय. एक सप्ताह में यह व्याधि निर्मूल हो जाती है. इस व्याधि को क्षुद्रान्गिका कहते हैं. इस व्याधि के चलते प्राणायाम का सही सलामत पूरा होना असंभव है.
इसी प्रकार – गंदुवा, भेशा, नामलकी, अरुण्वेध, शिव रिक्तिका आदि अनेक छोटी छोटी नाड़ी विकृतियाँ हैं जिन्हें दूर किये बिना कोई भी प्राणायाम या सिद्धि नहीं हो पाती है. इसलिये योग या प्राणायाम आदि साधने के पूर्व शरीर के इन लक्षणों को दूर करते हुए सिद्धि मार्ग में लग जाएँ.
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