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योग में ॐ

वेद विज्ञान
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दशवायु

योग में ॐ
सोSहं — हंसः पदेनैव जीवो जपति सर्वदा.
सोSहं —इसका विपरीत होता है हं —सः–. श्वास प्रश्वास करते समय यही “हंस” उच्चरित होता है. श्वास वायु को छोड़ते समय हँ तथा ग्रहण करते समय सः यही शब्द उच्चरित होता है–
यही हँ तथा सः अर्थात हँस प्रणव या “ॐकार” है–
शब्द ब्रह्मेति तां प्राह साक्षाद्देवः सदाशिवः.
अनाहतेषु चक्रेषु स शब्दः परिकीर्त्यते.- परापरिमलोल्लास
====ॐ शब्द की व्याकरण सिद्ध व्युत्पत्ति मैं अपने पहले के लेखों में दे चुका हूँ. जो जागरण जंकशन पर भी प्रकाशित हो चुका है.
यहाँ मैं इसकी यौगिक व्युत्पत्ति दे रहा हूँ–
स्वर अ से लेकर औ  तक मात्र 10 ही होते हैं. उसके बाद अनुस्व्वारित स्वर एवं व्यंजन युक्त स्वर आते हैं. इसमें लघु अर्थात ह्रस्व की मात्रा वाले स्वर यथा अ, इ, उ, ए ये सब पञ्च ज्ञानेन्द्रियों में उद्दालित हैं. जब इनमें उद्वेलन या स्फुरण के कारण वृद्धि होती है तब ये दीर्घ रूप -आ, ई, ऊ, ऐ तथा औ बन कर कर्मेन्द्रियों से बाहर निकलते हैं.
ध्यान दें-
जब किसी शब्द या वर्ण का उच्चारण किया जाता है तो बोलने के कुछ देर बाद भी वह गूंजता रहता है. जैसा कि हमें सुनाई देता रहता है. किन्तु यह कुछ देर तक ही नहीं गूंजता. बल्कि सदा गूंजता रहता है. —
यही कारण है की आज हम मनुष्य अपने बनाए उपकरणों से वैदिक एवं पौराणिक तथा ऐतिहासिक वाद संवाद को वायु मंडल से “Record” कर रहे है. 600 वर्ष पूर्व हुए हल्दीघाटी के युद्ध का रेकार्डिंग इसी तथ्य पर आधारित है.
कारण यह है कि इस उच्चारण की पूर्णता तब तक नहीं होती है जब तक यह अपने नियत स्थान तक नहीं पहुँच जाता. जैसे नदी का जल तब तक स्थिर नहीं होता जब तक यह समुद्र में नहीं पहुँच जाता. और जब यह आवाज या गूँज अपने निर्धारित स्थान पर पहुँच जाती है तब यह समाप्त हो जाती है. शब्द या वर्ण के उच्चारण की गूँज जहा समाप्त होती है वह बीज या परम शक्ति या परब्रह्म है.
अंतिम स्वर अर्थात औ के बाद अं आता है यही पर समस्त स्वर आकर स्थिर होते हैं. इसके बाद कोई स्वर नहीं है. यह अं या परमाशक्ति स्थूल रूप को जन्म देती है जो अ: के रूप में आता है. ध्यान रहे अं में का बिंदी शब्दों के ऊपर जा सकता है. जैसे शं में ऊपर बिंदी आ गया. किन्तु अ: का विसर्ग अर्थात  : कभी भी ऊपर अन्यत्र नहीं जा सकता. स्वर शक्ति होता है जो किसी में प्रवेश कर के उसे अपने अनुरूप बना लेता है. किन्तु विसर्ग अपने अनुरूप नहीं बल्कि दूसरे के अनुरूप बन जाता है.
इस प्रकार विसर्ग स्थूल रूप है सूक्ष्म रूप अर्थात स्वर की समाप्ति अं पर ही समाप्त हो जाती है. यही अं जब स्वरों अर्थात अ, इ, उ, ए और ओ के साथ मिलता है तो ॐ बन जाता है. जैसे–
अ+उ=ओ —(अदेंगुणः—आद् गुणः)
ए मिश्रित है. यह स्वयं अ + इ से मिलकर बना है. अतः यह शुद्ध न होने तथा मिश्रित न होने के आरण ग्राह्य नहीं है.
ओ भी मिश्रित है. यह अ+उ से मिलकर बना है.
अब इ बचता है. जो मिश्रित नहीं है.
इस प्रकार “ओ” जो अ और उ से मिलकर बना है, तथा इ जब उच्चरित होते है तब गूंजते गूँजते अंत में अंतिम स्वर अं पर जाकर ठहरते हैं. यह ओ, इ तथा अं मिलकर ॐ बन जाते है–ओ+इ+म, या
ओSम या ॐ
इस प्रकार ॐ की सिद्धि होती है.
अब यही ॐकार अर्थात पांचो ह्रस्व स्वर जब प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान के साथ ज्ञानेन्द्रियों में प्रवाहित होते हुए किन्हीं आभ्यंतर या बाह्य प्रयत्न के द्वारा उद्वेलित होते है तो इनका आकार विशाल या दीर्घ हो जाता है और यह दीर्घ स्वर अर्थात आ, ई, ऊ ऐ और औ का रूप धारण कर कर्मेन्द्रियों में नागवायु, कूर्म वायु, कूकर, धनञ्जय एवं देवदत्त वायु के साथ प्रवाहित होते हुए शरीर से बाहर निकलते है. इस प्रकार ॐ का संचार ह्रस्व स्वरों के साथ अन्दर एवं दीर्घ स्वरों के साथ बाहर निकलकर अपने अंतिम बिंदु-ठहराव स्थान परब्रह्म में पूर्णता प्राप्त होता है.
“निःश्वासोच्छ्वासरूपेण प्राणकर्म समीरितम.
अपानवायो: कर्मैतद्विन्मूत्रादि विसर्ज्जनम.
हानोपादान चेष्टादि दिर्व्यानकर्मेति चेष्यते.
उदान कर्म्म तच्चोक्तं देहस्योन्नायनादि यत.
पोषणादि समानस्य शरीरे कर्म कीर्त्तितं.
उद्गारादिर्गुणो यस्तु नागकर्म समीरितम.
निमीलनादि कूर्म्मस्य क्षुत्तृष्णे कूकरस्य च.
देवदत्तस्य विप्रेन्द्र तंद्राकर्मति कीर्त्तितम.
धनञ्जयस्य शोषादि सर्वकर्म प्रकीर्त्तितम.  – (योगी याज्ञवल्क्य 4/66-69)
नाक से श्वास प्रश्वास लेना, पेट में गये अन्न-जल को पचाना व् अलग करना, नाभि स्थल में अन्न को विष्टा रूप से, जल को स्वेद और मूत्र रूप से एवं रसादि को वीर्य रूप से बनाना प्राण वायु का काम है. पेट में अन्नादि पचाने के लिये अग्नि प्रज्ज्वलित करना, गुह्य में से मल निकालना, उपस्थ में से मूत्र निकालना, अंडकोष में वीर्य डालना, एवं मेढ्रु, उरू, जानु, कमर एवं जँघाद्वय के कार्य संपन्न करना, अपानवायु का कार्य है. पक्व रसादि को बहत्तर हजार नाड़ियों में पहुँचाना, देह का पुष्टि साधन करना, और स्वेद निकालना समानवायु का कार्य है. अंग-प्रत्यंग का संधि स्थान एवं अंग का उन्नयन करना उदानवायु का कार्य है. कान, नेत्र, ग्रीवा, गुल्फ, कंठ देश और कमर के नीचे के भाग की क्रिया संपन्न करना व्यानवायु का कार्य है. उद्गारादि नागवायु का , संकोचनादि कूर्मवायु, क्षुधा तृष्णा आदि कूकरवायु, निद्रा तंद्रा आदि देवदत्त वायु और शोषण आदि कार्य धनञ्जयवायु का कार्य है.
इस प्रकार हंस या प्रणव या ॐ के उच्चारण के साथ ही ये दशो वायु तीव्रगति से अपना कार्य करना शुरू कर देती हैं. क्योकि इन पर सदिश एवं पर्याप्त दबाव-प्रभाव पढ़ना शुरू हो जाता है. मजबूरी में मन का इन इन्द्रियों से सम्बन्ध विच्छेद होने लगता है.

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