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निश्चित रूप से पारब्रह्म परमेश्वर ने सृष्टि को वेद एवं वेद को ज्योतिष के रूप में नेत्र प्रदान कर अप्रत्यक्ष रूप से यह स्पष्ट कर दिया है कि सृष्टि उस परमेश्वर का स्थूल तथा वह स्वयं सृष्टि का सूक्ष्म रूप है. चाहे सृष्टि का कोई स्वरुप या व्यवहार हो, वह सब उसकी आकृति, विकृति, सुकृति एवं प्रकृति है. देखें वेद की यह ऋचा—-
“ठगो के अन्तर्यामी, व्यवहार में वञ्चना करने वालों के साक्षी, गुप्त चोरो के पालक, खङ्गधारी, वाणधारी तथा चोरो के पालक के निमित्त मेरा नमस्कार है. वज्र लेकर चलने वाले, हिंसको के पालक के निमित्त मेरा नमस्कार है. धान्य हरणकर्त्ता के पालक, शस्त्रधारी, रात्रि में भ्रमणशील, दस्युगण के पालक के निमित्त हमारा नमस्कार है.”
ऊपर की इस वेदऋचां को देख कर अज्ञानी, अल्पज्ञानी या दुर्बुद्धि प्राणी यही कहेगें कि परमेश्वर की तो वेद में ही निन्दा की गयी है जहाँ उसे तस्करो, ठगो एवं लुटेरों का प्रतिपालक बताया गया है.
किन्तु ऐसे अधम प्राणी इसी वेद की यह ऋचा नहीं देखते—
अर्थात शरीर की विविध चर्या के कारण इसमें रात दिन विकारो या विकृत पदार्थो का निर्माण होता रहता है. शरीर से इन्हें बाहर निकाल कर शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक होता है. ये विकार या दूषण जिस मार्ग या माध्यम से शरीर से बाहर निकलते है उन वाहिकाओं या माध्यमो को क्षुद्र या शूद्र संज्ञा दी गई है.
आप स्वयं विचार करें, यदि ये वाहिकाएँ (Ducts or Sources) अवरुद्ध (Blocked) हो जायें तो शरीर में इतना प्रदूषण या विष व्याप्त हो जायेगा कि मृत्यु तक हो सकती है. अतः इनकी साफ़ सफाई, देख रेख नितान्त आवश्यक है.
ऊपर के मन्त्र में आप देख सकते है कि कितनी शुचिता, सौम्यता एवं आदर पूर्वक इन क्षुद्र श्रेणी धारको ठगो एवं तस्करो की वन्दना की गई है.
निःसंदेह ब्रह्मवाक को “नेति नेति” कहा गया है तो वह तदनुरूप ही है.
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