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योग और विदेशी सभ्यता – हम क्यों उनके पीछलग्गू बने हैं.

वेद विज्ञान
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—ज़रा विडम्बना देखें–
दूसरे के घर की सूखी रोटी ब्रेड है जो उनके कुत्ते के लिये बनायी जाती है और जिसे हम बड़े चाव से स्वयं खाते एवं बड़प्पन दिखाते हुए दूसरों को खिलाने में गर्व महसूस करते है. किन्तु हम अपने घर की रोटी या तो कुत्तों को खिलाते है या फेंक देते है.
यदि कम्प्युटर लाखो किलोमीटर दूर हो तो नेट के सहारे एक गाईडेड मिसाइल को उतने ही लाख किलोमीटर दूर निशाने पर मारा जा सकता है. यह विश्वसनीय है क्योकि इसमें वैदिक पद्धति को पाश्चात्य विधि से विक्सित किया गया है. किन्तु वही विधि सीधे सीधे यदि स्वयं उससे भी तीव्र गति वाली किरणों- इंगला, पिंगला तथा सुषुम्ना को कम्प्युटर से करोड़ोगुना शक्तिशाली कुण्डलिनी से उत्सर्जित किया जाय तो यह सब ढोंग है. यही मखौल तब भी उड़ाया जाता था जब गीता के प्रथम श्लोक–“धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः” तथा “दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा” के द्वारा यह बताया गया था कि संजय उस दूरदृष्टि (–आज का दूरदर्शन) जिसे भगवान् कृष्ण ने दिया था, से देख देख कर धृत राष्ट्र को जो हस्तिनापुर में बैठे हुए थे तथा युद्ध कुरुक्षेत्र में चल रहा था. कि यह कैसे संभव है कि कोई बैठे हस्तिनापुर में और दिखाई दे कुरुक्षेत्र? किन्तु जब टीवी का आविष्कार पाश्चात्य देशों ने कर डाला तब सब अंग्रेजों के चाटुकार पालतू कुत्तों की तरह दुम दबा लिए. और यह नहीं जानते कि इसी कुण्डलिनी रुपी महाशक्तिशाली कम्प्युटर के सहारे अति भयानक किरण जाल अपने तीसरे नेत्र से उत्पन्न कर के करोडो किलोमीटर दूर बैठे भगवान् शिव संहार कर डालते हैं.
इस विधा को विकशित कर पश्चिमी देश या गैर भारत देश अतिविचित्र कारनामे एवं खोज दुनिया के सामने रख रहे हैं तथा भारत के गुलाम तथा अंग्रेजी सभ्यता के चाटुकार परिश्रम, स्वाध्याय एवं चिंतन से विलासिता की और मुख मोड उनका जूठन खाने में अपनी श्रेष्ठता समझ कर इतरा रहे हैं. अस्तु,
योग से यदि परब्रह्म में लिप्त हुआ जा सकता है तो फिर ऐसी कौन सी वस्तु ब्रह्माण्ड में है जिसे योग द्वारा न प्राप्त किया जा सके-यश, धन, यौवन, नैरुज्य एवं अमरता तक—-नारद, हनुमान एवं अश्वत्थामा आदि चिरजीवियों से सभी परिचित हैं—. इसीलिये श्रीमद्भागवत गीता में योगिराज भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
“तपस्विभ्योSधिको योगी ज्ञानिभ्योSपि मतोSधिकः.
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन.–श्रीमद्भागवत गीता 6/46
अर्थात जब योगी तपस्वी से श्रेष्ठ, ज्ञानी से श्रेष्ठ एवं कर्मी से भी श्रेष्ठ है; तो हे अर्जुन ! तुम योगी हो जाओ.
मैंने अपने पिच्च्ले लेखों में बताया है कि शरीर इंगला, पिंगला एवं सुषुम्ना नामक तीन प्रधान नाड़ियों से अपनी चर्या पूरी करता है. दशो इन्द्रियों से मन का आदेश पाकर ये नाड़ियाँ उस आदेश का सार भाग कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं. तथा जैसा मन का आदेश होता है वैसा ही आवरण कुण्डलिनी को घेरे रहता है. मन अपनी सहायिकाओं स्वरूप इन्द्रियों को आराम देने के पक्ष में सदा तल्लीन रहता है. बाहरी आचार विचार में ही मन को सुख लाभ आदि दिखाई देता है. लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, मत्सर, राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि की भावनाएं इन्द्रियों द्वारा मन तक पहुंचती है. और मन इन सब झंझटों से छुटकारा नहीं पाना चाहता बल्कि उसे इसी में सर्वानंद दिखायी देता है. अतः वैसी ही भावनायें इन नाड़ियों को प्राप्त होती है. ये नाड़ियाँ अपने स्वाभाव के अनुसार कुण्डलिनी को इन भावनाओं का कवच प्रदान करती है ताकि बार बार यह आनंद प्राप्त होता रहे. अतः कुण्डलिनी सदा इससे घिरी रह जाती है. तो सबसे पहले मन को इन इन्द्रियों से अलग कर देना चाहिए. जब इन्द्रियों पर से मन का नियंत्रण समाप्त हो जाता है, तब भावनाओं की संवेदना या सूचना किसी भी नाड़ी तक नहीं पहुँच पाती है. जब नाड़ियों की कोई संवेदना या सूचना  कुण्डलिनी तक नहो पहुँच पाती है, तब कुण्डलिनी पर से दबाव समाप्त हो जाता है. और कुण्डलिन हलकी होकर अनाहत एवं आज्ञाचक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र के कोटर में स्थिर हो जाती है और इन नाड़ियों के तीनो रूपों को सक्रिय रूप में अंतरिक्ष में प्रवेश करा देती है. ये तीनो नाड़ियाँ अति जाज्ज्वल्यमान ऊर्जा किरणों को बिखेरते हुए कुण्डलिनी से प्राप्त आदेश के अनुसार भयंकर वेग के साथ उस निर्धारित स्थान  या लक्ष्य पर प्रहार करती हैं.
इस प्रकार कुण्डलिनी द्वारा प्राप्त निर्देश-आदेश के अनुसार ये ऊर्जापुंज —
  • यदि आदेश उस कारण को जलाना है जिससे कोई व्याधि उत्पन्न हुई हो तो उसे ये ज्वालायें जला देती हैं.
  • यदि आदेश उस कारण को मिटाना है जिससे कोई काम पूरा नहीं हो पा रहा है तो उस अवरोध को मिटा देती हैं.
  • यदि आदेश उस मूल को जलाना है जिससे संतान आदि प्राप्त करने में बाधा आ रही हो तो उस कारण को भस्म आर देती हैं.
  • यदि किसी के मस्तिष्क को अपने अनुरूप बनाना है तो ये किरणें उस व्यक्ति के मन का कार्य स्वयं कर देती हैं. जिसे आज वशीकरण, मोहन या हिप्नोटिज्म कहा जाता है.
  • कही पर बाधा खडा करना हो वहाँ पर भयंकर अवरोध खडा कर देती हैं.

====ध्यान रहे इन्हीं इंगला, पिंगला एवं सुषुम्ना को आज पाश्चात्य भाषा में या अंग्रेजी में इंगला- Electron , पिंगला- Proton और सुषुम्ना को Neutron कहा गया है. इंगला अर्थात इलेक्ट्रान पर ऋणावेश होता है जिसमें निद्धर्षा अर्थात अल्फा किरणों के उत्सर्जन की अबाध क्षमता होती है. पिंगला अर्थात प्रोटोन पर धनावेश होता है तथा इससे जघ्ना अर्थात बीटा किरणों के उत्सर्जन की ज्यादा क्षमता होती है. सुषुम्ना अर्थात न्यूट्रोन पर कोई आवेश नहीं होता अर्थात निरपेक्ष एवं निष्पक्ष रूप से हुतघ्नी या गामा किरणों की भयानक ज्वाला उत्पन्न करती है.

इसी कुण्डलिनी के द्वारा अंतरिक्ष में प्रेषित इन त्रेधा किरणों के सहारे योगी जन दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं. दृष्टि गर्भाधान इसी विधा की देन है. इन्हीं किरणों के वायु रूप को मन्त्र पढ़ते हुए फूँक मारकर अनेक झाड फूँक का प्रचालन हुआ था जिसे आजकल विद्रूप कर दिया गया है. कुम्भज अर्थात अगस्त्य ऋषि ने इन्हीं जाज्जवल्य किरणों की भयंकर ज्वाला से समुद्र को वाष्पीकृत कर पी गए थे. आदि.
इसके लिये ये छ प्रकार के साधन होते हैं-
“आसन प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा.
ध्यानं समाधिरेतानि योगान्गानि वदन्ति षट.–गोरक्ष संहिता 1/5
अर्थात आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि. इसमें आसन द्वारा दृढ़ता, प्रत्याहार द्वारा धीरता, प्राणायाम द्वारा लघुत्व, ध्यान द्वारा प्रत्यक्ष और समाधि द्वारा निर्लिप्तता प्राप्त होती है. आसन ही व्यायाम है जिसे आजकल “योगा या “YOGA” कहा गया है.
इसे एक समर्थ एवं कुशल उपदेष्टा के सान्निध्य में ही सीखा जा सकता है.
“मूलपद्मे कुण्डलिनी यावन्निद्रायिता प्रभो.
तावत् किंचिन्न सिद्ध्येत मन्त्रयन्त्रार्चनादिकम.
जागर्ति यदि सा देवी बहुभिः पुण्यसंचयै:.
तदा प्रसादमायाति मन्त्रयन्त्रार्चनादिकम.”–गौतमी यंत्र 32/3-4
अर्थात मूलाधार स्थित कुण्डलिनी जबतक जागृत नहीं होगी तब तक मन्त्र जप आदि और यंत्र आदि से पूजार्चना विफल होगी. यदि साधक के बहु पुण्य प्रभाव से वे कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती हैं, तो मंत्रजपादि का फल भी सिद्ध होगा.
अतः कुण्डलिनी शक्ति की अर्चना करते हुए मुद्रा, ध्यान आदि करें-
ॐ नमस्ते देवदेवेशि योगीशप्राणवल्लभे.
सिद्धि दे वरदे मातः स्वयम्भुलिंगवेष्टिते.
असारे घोर संसारे भवरोगात महेश्वरि.
सर्वदा रक्ष माम देवि जन्म संसाररूपकात .- योगसार
और समस्त योग विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी महामाया दुर्गा जिससे कुडलिनी स्वयं अवलंबित है उसे प्रणाम करें-
“इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानामखिलेषु या.
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्ति देव्यै नमो नमः.–श्री दुर्गासप्तशती 5/77

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