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योगविद्या सबको क्यों नहीं देनी चाहिये?

वेद विज्ञान
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—क्या योगविद्या सबके लिये है?—
आज यूरोप आदि पाश्चात्य देशों में इस योग-साधना पर विशेष आन्दोलन और आलोचना चल रही है. पाश्चात्य नर-नारी गण आर्य शास्त्रोक्त योग-साधन की शिक्षा लेकर Theosophist बन गये हैं. Mesmerism, Hypnotism, Kleyarvens, Psychopathy, और Mental-Telegraphy आदि विद्याओं का प्रचार कर के वे जगत के नरनारियों को मुग्ध कर रहे हैं एवं अचम्भे में डाल रहे हैं. हम अपने घर की पोथी धूप में सुखाकर बस्ते में बाँध देते हैं और घर के चूहों, आरशुलाओं (छिपकली) और कीड़ों के आहार की सुव्यवस्था करते हैं.एवं फिर दूसरो के सामने “हमारे अनेक ग्रन्थ हैं” कह कर गर्व से फूले नहीं समाते. किन्तु क्या उसमें कुछ सार भी है? यदि कुछ है तो उसे न ढूंढ कर या साधन करके क्यों नहीं देखते? वास्तव में यह दोष नितांत हमारा ही नहीं है. शास्त्र में योग-योगांग के जो सब विषय और नियम लिखे हैं , वे अत्यंत ज़टिल – पेंचीदा और संक्षिप्त हैं. कोई जानने पर भी उसे प्रकाशित नहीं करता. वह यही कहता है कि यह गुह्य विषय है.
योग गुह्य विषय नहीं है. तार से संवाद भेजना, आकाश के चन्द्र या सूर्य के ग्रहण को देखना, फोनोग्राफ से गाना सुनना जैसे बाहरी विज्ञान का काम है-योग भी वैसे ही आध्यात्म विज्ञान का काम है. तो इसे जानबूझकर प्रकाशित क्यों नहीं किया जाता? शास्त्र ने मना किया है, यथा-
“वेदशास्त्र पुराणानि सामान्य गणिका इव.
इयंतु शाम्भवी विद्या गुप्ता कुलवधूरिव.–स्वरोदय शास्त्र
वेद और पुराण आदि सब बाज़ार में बैठी हुई साधारण वैश्या जैसे हैं; किन्तु शिवोक्त शाम्भवी विद्या घर की कुलवती वधू के समान है. तात्पर्य यह कि इसे कोई भी आजकल पढने लगता है. और अपने मन मुताबिक इसकी व्याख्या करने लगता है. तथा इसके कुछ सूत्रों को पकड़ कर अपने आप को वेदांती कहने लगता है. या अपने आप को विद्वान जैसा दिखाने लगता है. किन्तु योग ऐसी विद्या है जिसे न तो दिखाना पड़ता है और न ही इसकी मन मुताबिक प्रस्तुति की जा सकती है. क्योकि इसका तत्काल परिणाम प्राप्त हो जाया करता है. अतएव इसे प्रयत्न पूर्वक छिपा कर रखना चाहिये. इन्हें सर्व साधारण के सामने प्रकाशित नहीं करना चाहिये.—
“न देयं परशिष्येभ्योSप्यभक्तेभ्यो विशेषतः.”-शिववाक्यम्
ऐसा क्या कारण है कि इसे सबको नहीं देना चाहिये.
योगाभ्यास से आत्मा की मुक्ति के सिवा अनेक आश्चर्य जनक और अमानुषी क्षमता – शक्ति प्राप्त हो जाती है. जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि योग के सहारे सहस्रसार से तीनो नाड़ियो-इंगला, पिंगला एवं सुषुम्ना के अति उग्र किरण जाल से किसी के शरीर में प्रवेश किया जा सकता है, सम्मुख किसी भी व्यक्ति को जला दिया जा सकता है, किसी का भी अपहरण किया जा सकता है, इसी के मन मस्तिष्क का दोहन किया जा सकता है. मारण, मोहन, उच्चाटन आदि इस योग साधना से किया जा सकता है. जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूँ, पश्चिम के देश इस पर प्रयोग कर के विविध एवं चौंका देने वाले अनेक आश्चर्य जनक कार्य करते जा रहे हैं. चीन का तांत्रिक योग तो पहले से ही प्रसिद्ध है.
अतः इससे अनेक खतरनाक काम भी किये जा सकते हैं. जिनका परिणाम तत्काल प्राप्त हो जाता है. जिससे सामान्य लोग इसमें कोई घुसपैठ या मिलावट नहीं कर सकते. वेद-पुराण आदि की तो मनमानी व्याख्या कर सकते है. इसी लिये वेद पुराण आदि को सामान्य वैश्या तथा योगविद्या को घर की कुलवती वधू बताया गया है.
विशेषतः आज के तथा कथित उच्च विद्या प्राप्त तथा अंग्रेजी माध्यम से उच्च तकनीक की शिक्षा प्राप्त किये अपने आप को सुसभ्य एवं श्रेष्ठ कहलाने की होड़ में आगे रहने का प्रयत्न करने वाले इस विद्या में ज्यादा मीन मेष निकालने लगते हैं. अब ऐसे व्यक्ति को इस विद्या का ज्ञान दे दिया जाय तो वह भस्मासुर एवं महिषासुर ही बनेगा, वशिष्ठ या याज्ञवल्क्य तो नहीं ही बन सकता. इसी लिये कहा गया है कि-
“अभक्ते वन्चके धूर्त्ते पाषंडे नास्तिके नरे.
मनसापि न वक्तव्यं गुरूगुह्यं कदाचन.”
अर्थात भक्तिहीन, वंचक, धूर्त्त, पाषंडी, और नास्तिक- इन सब हेतुवादियों से यह गुरुतर विषय कभी प्रकट नहीं करना चाहिये.

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