वैसे तो विविध ग्रंथों एवं जनश्रुतियों के आधार पर तथा अनेक दंतकथाओं के अनुसार शिवलिंग की उत्पत्ति के विभिन्न कारण एवं प्रकार बताये गए हैं. किन्तु तामिल ग्रन्थ “दिव्य लिंगासवम” जिसकी रचना ऋषि वेणुपाद तथा संकलन आचार्य नेमिपर्वा द्वारा की गयी है उसमें शिवलिंग के उद्भव की तार्किक एवं प्रामाणिक रूपरेखा प्रस्तुत है. यद्यपि यह ग्रन्थ बहुत कुछ अस्पष्ट है क्योकि इसमें संस्कृत के श्लोकों में तमिल, तेलुगु, मलयालम तथा कन्नड़ के अनेक रूपांतरित शब्दों का समावेश मिलता है. किन्तु इसका संक्षिप्त संकेत स्कन्दपुराण में भी मिलता है. स्कन्दपुराण के लिंग प्रतिष्ठा वर्णन नामक अध्याय में बताया गया है-
“एवं क्षिप्तः शिवोमौनी गच्छ्मानोSपि पर्वतम.
तदासऋषिभिः प्राप्तोमहादेवोSव्ययस्तदा.
यस्मात्कलत्रहर्त्ता त्वं तास्मात्षन्ढो भवत्वरम.
एवं शप्तः ससुनिभिर्लिन्गं तस्यापतद्भुवि.”
वैसे तो यह मत आज वर्तमान शिवभक्तो को बहुत असहिष्णु लगेगा. किन्तु इसका दूरगामी परिणामोत्सर्जक यथार्थ कटु एवं निर्विवाद ही है. लिंग त्रैलोक संपदा का द्योतक है. भौतिक संपदा सांसारिक स्निग्धता का स्रोत होता है. अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, इर्ष्या, राग, द्वेष, मत्सर, संयोग, वियोग, विषाद आदि इसी से उत्पन होते हैं. यदि इन्हें नष्ट करना है तो सांसारिक बंधन युक्त भावनाओं के पाश को तोड़ना ही पड़ेगा.
भगवान् शिव ने प्रजापति दक्ष के यज्ञ तथा स्वयं दक्ष का विनाश इन्हीं भावानुभावों के कारण किया था. अन्यथा भस्मासुर को वर देते समय यह विचार या निर्णय कहाँ था? क्या वह नहीं सोच सकते थे कि इस वरदान का विपरीत प्रभाव होगा जिसे उन्हें स्वयं भुगतना पड़ेगा? किन्तु यह दो अवसरों का वर्णन इसीलिए संसार के सम्मुख उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया गया है. जैसे जबतक भगवान् शिव अपने लिंग से युक्त रहे तब तक उन्हें सांसारिक भावनाओं से बंधकर रहना पड़ता था. जिसके वशीभूत होकर उन्हें दक्ष विनाश की लीला करनी पड़ी थी. किन्तु जब भस्मासुर ने लिंगरहित
“नैतद्विग्रहमनुपेतं शिवं शिवारहितं भवेत्.
तदावनुलब्धः भार्यां सुलोचनां तपसां प्रियाम्.”
यह कथा सर्व विदित है कि भस्मासुर का विनाश मात्र शिवा अर्थात सती के मोहयुक्त लिप्सा के कारण हुआ था. जिससे भगवान् शिव अपने ही वरदान से भस्म होने से बचे.
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि भगवान् शिव स्वयं तो भुक्ति मुक्ति सब कुछ देने वाले हैं. किन्तु धन-संपदा तथा स्त्री-पुत्र-पति आदि का पारिवारिक-सामाजिक सुख यदि प्राप्त हो सकता है तो केवल लिंग पूजन से ही संभव है.
क्योकि जैसा की ऊपर के स्कन्दपुराण के कथन से स्पष्ट है कि जब ऋषियों ने शाप दिया कि हे रूद्र तुम तत्काल प्रभाव से “षन्ड” हो जाओ तभी भगवान् शिव का लिंग उनसे पृथक होकर धरती पर आ गया. देखे स्कन्दपुराण के माहेश्वर खण्ड के छठे अध्याय लिंग प्रतिष्ठा अध्याय के 24 एवं 25वें श्लोक को. क्योकि ऋषियों के मतानुसार मात्र लिंग के प्रभाव के कारण ही भगवान् शिव उनकी पत्नियों को घूर घूर कर देख रहे थे. और उस महान विभूति दिगम्बर भगवान शिव के अलौकिक आभा युक्त प्रभाव जिसके चारो और आठो सिद्धियाँ एवं नवो निधियाँ चारण गान करती हुई उपस्थित थीं, ऐसे देवदुर्लभ शांत सर्वोच्च सुख वाले सच्चिदानंद स्वरुप का दर्शन पाकर वे समस्त ऋषि पत्नियाँ विमोहित हो रही थीं. उससे ऋषियों को महान चिंता हुई.
यहाँ ऋषियों को चिंता इस बात से नहीं हुई कि उनकी पत्नियों को वासनामयी दृष्टि से देखा जा रहा है, बल्कि चिंता इस बात को लेकर हुई कि भगवान् शिव का लिंग युक्त यह स्वरुप समस्त संसार को ज्ञानमार्गी बना देगा. प्राणियों को स्त्री संसर्ग, पुत्र-पुत्री-स्त्री आदि के समबन्ध का भाव ही समाप्त हो जाएगा. और कुछ ही दिनों में यह संसार जीव रहित हो जाएगा. क्योकि ज्ञान मार्ग का आश्रय लेकर समस्त जीव जीवन मुक्त हो जायेगें. फिर महाप्रभु जगन्नियंता का आदेश एवं सृष्टि सम्बन्धी उद्देश्य बाधित फल वाला हो जाएगा. जिससे प्रभावित होकर उन ऋषियों ने भगवान् शिव से कर्मयोग के स्वरुप लिंग तथा ज्ञान योग के स्वरुप उनके विग्रह को पृथक पृथक कर दिया.
किन्तु बहुत पश्चात्ताप का विषय है कि मध्यकालीन वेदपुराण, श्रुति-उपनिषद् तथा ऋषिमत विरोधी नास्तिक इतर सनातनी आततायी यवन आदि नास्तिकों तथा चांडालों द्वारा इस कथन को भ्रष्ट तथा दूषित करते हुए लोगों में लिंग के प्रति दुर्भावना तथा अनिष्टकारी अर्थ भर दिया गया. तथा लिंग को पुरुष का वासना मूलक शरीर अवयव प्रचारित-प्रसारित एवं स्थापित करने का सतत यत्न किया.
लिंग तीनो गुण-सत, राज तथा तम की पुन्जभूता इंगला-पिंगला तथा सुषुम्ना का स्थायी आवास है. इसमें स्वतंत्र सृष्टि करने तथा उसके नियमन-संचालन की पूर्ण एवं अपूर्व क्षमता होती है. यही से एक जीव के समान अन्य सदृश शक्ति-गुण एवं प्रभाव वाले जीव की उत्पादक क्षमता होती है. शरीर के किसी दुसरे किसी अंग में यह क्षमता नहीं होती है. इसीलिये कुंडलिनी का जागरण ही मोक्ष कहा गया है. और इस समस्त प्रक्रिया को योगमार्ग या दुसरे शब्दों में ज्ञान मार्ग कहा गया है. इसका विस्तृत विश्लेषण मेरे अनेक लेखों में देखा जा सकता है जो जागरण जंक्शन के अलावा मेरे वेबसाईट “vedvigyan.org” पर भी उपलब्ध है. अस्तु,
इस लिंग को भगवान् शिव से पृथक करके द्वैतवाद की स्थापना करते हुए प्राणियों को भौतिक सुख संपदा प्राप्त करने के अमोघ उपाय लिंग को संसार में इन ऋषियों द्वारा भगवान् शिव की आज्ञा से किया गया.
इस प्रकार लिंग का प्रादुर्भाव हुआ.
विशेष- योगी तथा ऋषि-मुनि कृत शिवलिंग के तत्काल सिद्धिप्रद होने हेतु तथा कलियुग में शीघ्र एवं पूर्ण फल देने हेतु विधान का वर्णन मैं अपने अगले लेख में दे रहा हूँ.
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