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महर्षि भृगु- एक महान ज्योतिषाचार्य एवं तंत्रलाघव प्रवर्तक —

वेद विज्ञान
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महर्षि भृगु- एक महान ज्योतिषाचार्य एवं तंत्रलाघव प्रवर्तक —
दैत्य गुरु शुक्राचार्य इसी महान त्रिकालद्रष्टा के पुत्र थे. अपनी महानतम योग्यता के कारण ही ऐसा ऋषि भगवान् विष्णु के छाती में लात मारने की धृष्टता कर सकता है. और मंदस्मित भंगिमा के साथ भगवान् श्रीहरि को इस आचरण को शिरोधार्य करना पडा.
महर्षि भृगु को अथर्वण भी कहा जाता है. क्योकि तीनो वेदों से तात्कालिक एवं संक्षिप्त किन्तु उग्र प्रभाव वाले मन्त्रों को इन्होने ही पृथक कर स्वरबद्ध किया था. जिसका संकलन इन्होने महादेव की कृपा एवं भगवती रुद्राणी की स्नेहवत्सलता से प्राप्त किया था. इन्होने बड़े बड़े यज्ञादि से प्राप्त होने वाली शक्ति को सरलता से संक्षिप्त रूप से एवं शीघ्रता पूर्वक प्राप्त करने की विधा प्रकट की. यह अवश्य है कि इनके द्वारा प्रकट की गयीं समस्त विधायें क्षणभंगुर होती थीं. क्योकि इनका पोषण एवं अनुरक्षण आधार पुष्ट नहीं होता था. जब कि शेष तीनों वेदों से प्राप्त विद्या-यंत्र-औषधि सदा स्थायी होती हैं. किन्तु धीरे प्रभाव वाली होती हैं.
—-ध्यान रहे, संजीवनी विद्या को भगवान शिव से प्राप्त करने का श्रेय इसी महात्मा को जाता है. किन्तु महात्मा वशिष्ठ के अनुरोध पर इन्होने इसे अपने पुत्र तक को नहीं दिया. और आचार्य शुक्र ने घोर तपस्या कर इसे भगवान् शिव से स्वयं प्राप्त किया.
इस प्रकार जितने भी तात्कालिक प्रभाव वाले संक्षिप्त मन्त्र-मणि-औषधि हैं, उन सबके प्रवर्तक महर्षि भृगु ही रहे हैं. जहाँ अन्य देवी देवताओं ने अगणित एवं कठोर तपश्चर्या से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त की उसे महर्षि भृगु ने हठयोग से शीघ्र प्राप्त किया. इन्हीं संक्षिप्त किन्तु गंभीर प्रभाव वाले शस्त्रादि की सिद्धि अपने पिता महर्षि भृगु से प्राप्त कर दैत्यों को शुक्राचार्य ने संरक्षण प्रदान किया.
ज्ञान एवं क्रिया योग के अनुयायी देवी देवता इस अथर्वण प्रयास से सहमत नहीं होते थे. क्योकि इसमें से ढेर सारी आवश्यक क्रियाएं तथा प्रयोग जो शुचिता के लिये आवश्यक हैं, उसे त्याज दिया गया होता है. जैसे इसके आधार पर निर्मित पञ्चज्वाला बाण प्रत्यंचा से छूट जाने के बाद उसका निरोध या उससे निवृत्ति असंभव थी. किन्तु शेष वेदों के आधार पर निर्मित ब्रह्मास्त्र को भी शांत कराया जा सकता है. इस प्रकार अथर्ववेद का अन्य तीन वेदों से अन्यतम सम्बन्ध होते हुए भी उच्छ्रिष्ट होने के कारण प्रकट नहीं होता. यही कारण है कि ब्रह्मा के चार मुख होते हुए भी दिखाई मात्र तीन ही देते हैं. एक मुख जो अथर्वण उपदेष्टा के रूप में अथर्ववेद के नाम से विदित है, हमेशा छिपा रहता है.
किन्तु कलिकाल के प्रभाव-गुण-स्वभाव-महत्ता एवं आवश्यकता को देखते हुए आज अथर्ववेद ही मुख्य है. इसके अनुसरण से ही अलिकाल में जीवन स्थिर एवं पूर्ण रखा जा सकता है. कारण यह है कि कलिकाल में लम्बी अवधि की तपस्या, व्यापक विस्तार वाले यज्ञ तथा प्रतिबंधित आजीवन आचरण का अनुपालन नितांत कठिन ही नहीं बल्कि असंभव हो गया है.
“क्लिष्टोSयं कलिकरालकालकांचुकीय: कश्चिदमेवSSर्षमताय वै.
अथर्वSएकमेव संश्रिष्टम वित्वरणं श्लाघोत्तं तदनुपश्यते मिहिर.”
यथा ऋग्वेद में वरुण को प्रसन्न करने हेतु उनका यज्ञ वारुणी विविध सामग्री तथा तथा पञ्चनैवेद्य (अन्न, वस्त्र, आवास, स्तुति एवं समर्पण) निवेदन अर्ने का अधिकार है वहीँ अथर्ववेद में वितानवारुणी नामक यंत्र से मेघ को जल बरसाने पर विवश कर दिया जाता है.
अंतर मात्र इतना अवश्य है कि ऋग्वेदिक प्रक्रिया से उत्सर्जित वर्षा पोषण, संरक्षण एवं स्थायित्व से भरी रहती है जबकि वितानवारुणी नामक यंत्र से उत्पन्न की गयी वर्षा ममत्व रहित, निःसार, उग्र एवं सद्यः विनष्ट स्वभाव वाली होती है. अर्थात यह वर्षा कृषि को व्याधि आदि देकर नष्ट करने वाली होती है. क्योकि इसमें उष्णता होती है. सामान्य भाषा में इसे छीना हुआ या प्रताड़ित कर मेघ का शोषण किया हुआ जल रहता है जो प्रभाव में उग्र हो होगा. इसीलिये मणि-मन्त्र-औषधि (ऋग्वेद-सामवेद-यजुर्वेद) का उल्लेख प्रत्येक स्थान पर प्राप्त होगा किन्तु तंत्रयोग का विधान मात्र अथर्ववेद में ही प्राप्त होता है.
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अथर्ववेद के मन्त्र सूक्ष्म, तीव्र प्रभाव वाले एवं अल्पकाल में सिद्धसिद्धि प्रदान करने वाले हैं.

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