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शास्त्र का विरोध करने वाले ऐसे शास्त्री ही हैं–

वेद विज्ञान
वेद विज्ञान
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शास्त्र का विरोध करने वाले ऐसे शास्त्री ही हैं—
वेद-पुराण आदि ग्रंथों के कथन को न समझ पाने के कारण कुछ धूर्त्त, पाखण्डी एवं जनता को ठग कर अपने आपढोंगी को महान ज्योतिषी, पंडित एवं विद्वान दिखाई देने वाले कैसे वास्तविकता प्रकट होने से जल भुन बैठते हैं, इसका उदाहरण मेरे पोस्ट्स पर दिए गये ऐसे ही तथा कथित पंडितों के कमेंट्स से जाने जा सकते हैं.
ऐसे लोग एकाध रेलवे बुक स्टाल या फुटपाथ पर मिलने-बिकने वाली पुस्तकों को पढ़ते या रख लेते हैं तथा ज्योतिष पितामह बन बैठते हैं. कुछ जो थोड़ा बहुत पढ़ लिख जाते हैं वे अपनी मन मर्जी के अनुसार इन पवित्र ग्रंथों के शब्द-वाक्यों का अर्थ कर श्रद्धालुओं को भी भ्रष्ट कर रहे हैं.
ऐसे ही कुछ बहुरूपिये पंडित तथा कर्मकांडी जो मांस आदि भक्षण के आदती थे उन्होंने यज्ञादि में पशुबलि का प्रचालन शुरू कर दिया. तथा उसका प्रमाणीकरण शास्त्रों के वचनों से कर दिया–
“सप्तास्यासन परिधयस्त्रिसप्त समिधः कृता.
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन पुरुषं पशूम.—-यजुर्वेद अध्याय 31
त्रिसप्त अर्थात तीन गुणा सात अर्थात 21 मजबूत परिधि अर्थात रस्सियों से बांधकर सात तरह की सूखी ज्वलनशील समिधा अर्थात लकड़ी की आग में अबध्नान अर्थात बध किये गये पशु की बलि देनी चाहिये.
और इस प्रकार ऐसे ही अनिष्ट कारक ढोंगी बहुरूपिये कर्मकाण्डी पण्डित का स्वांग करते हुए अपने मांसाहार की भी सुदृढ़ व्यवस्था कर दिये. और आज उसी को वेद शास्त्र का सिद्धांत मानकर पशुबलि का अनुकरण किया जा रहा है.
जबकि चारवाक ने स्पष्ट लिखा है कि-
मांसानां खादनं तद्वंनिशाचरसमीरितम.
अर्थात यज्ञ में मांस भक्षण या पशुबलि का आचरण राक्षसों द्वारा निर्धारित किया गया है. यही नहीं महाभारत में भी इसे बताया गया है कि कभी भी प्राचीन काल में या पुरावेदिक काल में भी पशुबलि का कोई वर्णन या अनुमोदन नहीं मिलता है. इसे तो निशाचरों ने ग्रंथों में घुसेड़ा है–
श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशु:.
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः.—महाभा0 अनु0 115/49
यह धुर्त्तों एवं पाखंडियों आदि ने सुरा, मांस आदि खाने के लोभ में प्रचारित कर दिया–
सुरां मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरौदनम.
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद वेदेषु कल्पितम.
मानान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रकल्पितम.–महाभा० अनु० 265/9-10
अन्यथा ऋग्वेद में लिखा है–
यः पौरुषेण क्रविषा समंकेयो अश्व्येन पशुना यातुधानः.
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च.—ऋग्वेद 10/87/16
अर्थात जो राक्षस भी मनुष्य का, घोड़े का और गाय का मांस खाता हो तथा दूध की चोरी करता हो उसके सिर को कुचल देना चाहिये. मनुष्य की तो बात ही क्या?
अथर्ववेद में—
यथा मांसं यथा सुरा यथाक्षा अधिदेवने यथा पुंसो वृषप्ण्यत स्त्रियां निहन्यते मनः. अथर्ववेद 6/70/1
अर्थात मांसाहारी, शराब पीने वाला और व्यभिचारी एक समान ही मार डालने योग्य हैं.
—-किन्तु ये पाखंडी अर्थ का अनर्थ करते हुए वास्तविक अर्थ या भाव को न समझते हुए या अज्ञान वश या लोलुपता के कारण उसका अनर्थ करा देते हैं. मैं कुछ ऐसे ही शब्दों का द्वयर्थक रूप आप को दे रहा हूँ जो दोहरे अर्थ करते हैं-
वृषभ- ऋषभकन्द, श्वान-कुत्ताघास, मार्जार- बिल्लिघास, चिता, मयूर-मयूरशिखा, बीछू- बीछूबटी, सर्प-सर्पिणी बटी, अश्व- अश्वगंधा, अजमोदा, नकुल- नाकूलीबूटी, हंस-हंसपदी, मत्स्य-मत्स्याक्षी, मूषक-मूषाकर्णी, गो- गौलोमी, महाज-बड़ी अजवायन, सिंही-कटेली, वासा, खर- खरपार्णिनि, काक-काकमाची, वाराह-वाराहिकंद, महिष-महिषाक्ष, गुग्गुल, श्येन-श्येनघंटी (दन्ती), मेष-जीवनाशक, कुक्कुट- शाल्मली वृक्ष, नर-सौगंधिक तृण, मातुल-घमरा, मृग-सहदेवी, इन्द्रायण, जटामांसी, कपूर, पशु-अम्बाडा, कुमारी-घीकुमार, हस्ति-हस्तिकंद, वपा-झिल्ली-बक्कल के भीतर का जाला, अस्थि-गुठली, मांस- गूदा, जटामांसी, चर्म-बक्कल, स्नायु-रेशा, नख-नखबूटी, मेद-मेदा, लोम (शा)-जटामांसी, हृद-दारचीनी, पेशी-जटामांसी, रुधिर-केसर, आलम्भन-स्पर्श
—किन्तु मतलब निकालने के लिये इन वनस्पतियों का ये धूर्त जीवों से लगा लेते हैं.
यह तो रही वेद के कर्मकाण्ड आदि की बात.
ज्योतिष में देखें-
लग्ने व्यये च पाताले यामित्रे चाSष्टमे कुजः.
कन्या भर्तुर्विनाशाय भर्ता कन्यां विनाशयेत.
अर्थात जब लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या बारहवें भाव में जिस लड़का या लड़की की कुंडली में मंगल हो वह कन्या अपने भर्ता (पति) का नाश कर देती है या पति कन्या का नाश कर देता है.
अभी आप स्वयं देखें, कन्या का पति कैसे हो सकता है? जब होगा तब पति की पत्नी होगी या पत्नी का पति होगा. कन्या (जो अविवाहित हो वह कन्या होती है) का पति कहाँ से हो सकता है?
ऐसे ही झाँझ कवंडल बाँध कर ज्योतिष की दुकान खोले ठग आज जनता को मूर्ख बनाकर उन्हें लूट रहे हैं तथा वास्तव में जो विद्वान हैं उन्हें भी अपमानित या झूठा बता रहे हैं.
यही कारण है कि जब मैं ऐसे सत्य का पर्दाफास करता हूँ तो मुंहनोचवा की भांति ये तथा कथित पाखंडी धूर्त जो लूट खसोट मचाये हुए हैं, मेरे लेख या पोस्ट्स पर बिल्लियों की भांति पंजा मारते हुए टूट पड़ते हैं. इसके अलावा ज़रा सिद्धांत ज्योतिष को देखें–
पृथ्वी की छाया सदैव सूर्य से 6 राशि के अंतर पर अर्थात सूर्य सातवीं राशि पर होती है. सूर्य सिद्धांत में कहा गया है कि-
भानोर्भार्द्धे महीच्छाया तत्तुल्येSर्कसमेSथवा.
शंशाकपाते ग्रहणं कियद्भागाधिकोनके.
इसका अर्थ आज के ज्योतिषी क्या लगाते हैं-
जब सूर्य से चन्द्रमा 180 अंश की दूरी पर हो तो ग्रहण होता है.
किन्तु इसका साधन नहीं करते न ही इसका अर्थ करते हैं. क्योकि इस प्रकार तो प्रत्येक पूर्णिमा को सूर्य से चन्द्रमा 180 अंश की दूरी पर होता है. तब तो प्रत्येक पूर्णिमा को चंद्रग्रहण होना चाहिये.
किन्तु वराह के कथन को ध्यान में नहीं रखते-
सूर्यात सप्तमराशौ यदि चोदग्दक्षिणेन नातिगतः.
चन्द्रः पूर्वाभिमुखश्छायामौर्वीं तदा विशति. ——वृहत्संहिता अध्याय 5 राहुचाराध्याय
अर्थात सूर्य से सातवीं राशि में पृथ्वी की छाया से उत्तर या दक्षिण की ओर बहुत अधिक विक्षेप से रहित चन्द्रमा होता है. इसीलिये पूर्व की ओर बढ़ता हुआ ही पृथ्वी की छाया में प्रवेश कर सकता है. यह परम विक्षेप या परम शर (Latitude) की मात्रा के अनुसार सम्पूर्ण ग्रास, अर्द्धग्रास या तिहाई ग्रास की मात्रा का निश्चय किया जाता है. ऐसा नहीं कि प्रत्ये पूर्णिमा को चंद्रग्रहण होने लगेगा.
अस्तु,
जो भी हो, मेरा प्रयत्न यही है कि लोगों को वास्तविकता से परिचित कराया जाय. शेष जगदीश्वरी मातारानी पर निर्भर है.                            हैं.

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